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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १३, २२२. सुद्धणयविसयगुणिदकम्मंसियलक्खणेण' आगंतूण णेरइयचरिमसमए द्विदस्स दव्वं णाणावरणीयदव्वेण सह छण्णं कम्माणं दव्वं उक्कस्सयं होदि । अह णाणावरणीय दव्वस्स सुद्धणयविसयगुणिदकम्मसियो होद्ण जदि सेसकम्माणमसुद्धणयविसयगुणिदकम्मंसियो होदि तो तेसिं दव्ववेयणा अणुकस्सा । सा वि विट्ठाणपदिदा, अण्णस्सासंभवादो । एदं दवट्ठियणयसुत्तं । संपहि पज्जवट्ठियणयाणुग्गहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि अणंतभागहीणा वा असंखेजभागहीणा वा॥ २२२॥ ___णाणावरणीयदव्वस्स उक्कस्ससंचयं कादूण जदि सेसं छकम्माणमेगपदेसूणुक्कस्ससंचयं करेदि तो तेसिं दव्ववेयणा अणुक्कस्सा होदण अणंतभागहीणा । को पडिभागो ? उक्कस्सदव्वं । दुपदेसूणस्स उक्कस्सदव्वस्स संचए कदे वि अणंतभागहीणा । को पडिभागो? उकस्सदव्वदुभागो । एवमेदेण कमेण अणंतभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव उक्कस्सदव्वमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमुक्कस्सदव्वादो परिहीणं ति । तत्तो पहुडि असंखेज्जभागहाणी होदण गच्छदि जाव उक्कस्सदव्यं तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंअसंखज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडेण परिहीणं ति । अहियं किण्ण झिज्जदे ? ण, गुणिदकम्मंसियम्मि उक्कस्सेण जदि खो होदि तो एगसमयपबद्धो चेव झिज्जदि त्ति शुद्धनयके विषयभूत गुणितकर्माशिक स्वरूपसे आकर नारक भवके अन्तिम समयमें स्थित जीवके ज्ञानावरणीयके द्रव्यके साथ छह कर्मों का द्रव्य उत्कृष्ट होता है। परन्तु ज्ञानावरणीय द्रव्यका शुद्धनयका विषयभूत गुणितकर्माशिक होकर यदि शेष कर्मोंका अशुद्धनयका विषयभूत गुणितकर्माशिक होता है तो उनकी द्रव्यवेदना अनुत्कृष्ट होतो है । वह भी द्विस्थानपतित है, क्योंकि, यहाँ अन्य स्थानकी सम्भावना नहीं है। यह द्रव्यार्थिकनयका आश्रय करनेवाला सूत्र है। अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थ आगेका सूत्र कहते हैं-- अनन्तभागहीन अथवा असंख्यातभागहीन होती है ॥ २२२ ॥ ज्ञानावरणीय द्रव्यका उत्कृष्ट संचय करके यदि शेष छह कर्मोंका एक प्रदेशहीन उत्कृष्ट सञ्चय करता है तो उनकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट होकर अनन्तभागहीन होती है। प्रतिभाग क्या है ? उत्कृष्ट द्रव्य प्रतिभाग है। दो प्रदेशोंसे होन उत्कृष्ट द्रव्यका सञ्चय करनेपर ग हीन होती है। प्रतिभाग क्या है ? उत्कृष्ट द्रव्यका द्वितीय भाग प्रतिभाग है। इस प्रकार इस क्रमसे अनन्तभागहानि होकर तब तक जाती है जब तक कि उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे हीन होता है। वहाँ से लेकर उत्कृष्ट द्रव्यको तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे हीन होने तक असंख्यातभागहानि होकर जाती है। शंका-अधिक हीन क्यों नहीं होता ? समाधान-नहीं, क्योंकि, गुणितकौशिक जीवमें उत्कृष्टरूपसे यदि क्षय होता है तो एक १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'लक्खणे', ताप्रतौ'लक्खणे [ण]' इति पाठः । २ तापतौ [दव्यं] इत्येवंविधोऽत्र पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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