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________________ ४७०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १३, २६१. णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ २६१ ॥ कुदो ? तिण्णमघादिकम्माणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तहिदिसंतकम्मसेसत्तादो, आउअस्स अंतोमुहुत्तप्पहुडिटिदिसंतकम्मसेसत्तादो। तस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहणिया णत्थि॥ २६२ ॥ सुहुमसांपराइयचरिमसमयेणट्ठाए खीणकसायचरिमसमए संताभावादो। एवं दंसणावरणीय-अंतराइयाणं ॥ २६३ ॥ जहा णाणावरणीयस्स सण्णियासो कदो तहा एदेसिं दोणं कम्माणं कायव्यो । जस्स वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स णाणावरणीयदंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं वेयणा कालदो जहणिया णत्थि ॥ २६४॥ कुदो ? छदुमत्थद्धाए विणद्वत्तादो । तस्स आउअ-णामा-गोदवेयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २६५ ॥ सुगमं । वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ २६१॥ कारण कि उसके तीन अघाति कर्मोंका स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र तथा आयुका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त आदि मात्र शेष रहता है। उसके मोहनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य नहीं होती॥ २९२ ॥ कारण कि वह सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें नष्ट हो चुकी है, अतः उसका क्षीणकषायके अन्तिम समयमें सत्त्व सम्भव नहीं है। इसी प्रकार दर्शनावरण और अन्तरायकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥२६३॥ जिस प्रकारसे ज्ञानावरणीयका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकारसे इन दो कर्मोंका संनिकर्ष करना चाहिये। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य नहीं होती ॥ २६४ ॥ कारण कि उनकी वेदना छद्मस्थ कालमें नष्ट हो चुकी है। उसके आयु, नाम और गोत्रकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २६५ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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