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________________ ४,२,१३, वेयणसणियासविहाणाणियोगद्दार [४६९ जहण्णा ॥२८६॥ जहण्णोगाहणाए हिदणाणावरणीयखंधेहितो जीवदुवारेण सत्तण्णं कम्मक्खंधाणं भेदाभावादो। एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥२८७॥ जहा णाणावरणीयस्स सण्णियासो परूविदो तहा सेसकम्माणं परूवेदव्यो, अविसेसादो। जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२८८।। सुगमं । जहण्णा ॥२८६ ॥ णाणावरणीयजहण्णदव्वक्खंधाणं च एदासिं जहण्णदव्वक्खंधाणं पि एगसमयहिदिदसणादो। तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणा कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२६॥ सुगमं । वह जघन्य होती है ॥ २८६ ॥ कारण यह कि जघन्य अवगाहना में स्थित ज्ञानावरणीयके स्कन्धोंसे जीव द्वारा सात कर्मों के स्कन्धोंमें कोई भेद नहीं है । इसी प्रकार शेष सात कर्मोकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ २८७ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके संनिकर्षकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष कर्मोंके संनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि. उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके दर्शनावरणीय और अन्तरायकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह जघन्य होती है ॥ २८९ ॥ कारण यह कि ज्ञानावरणीयके जघन्य द्रव्य के स्कम्धोंकी तथा इन दो कर्मोंके जघन्य द्रव्यके स्कन्धों की भी एक सयय स्थिति देखी जाती है। उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २९० ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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