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________________ ४०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४,२,७, ६४. वेयणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया अणंतगुणा ॥ ६४॥ सुगमं । एवं जहण्णुकस्सप्पाबहुअं समत्तं । (संपहि मूलपयडीओ अस्सिदूण जहण्णुकस्सप्पाबहुअपरूवणं करिय उत्तरपयडीओ अस्सिदण अणुभागअप्पाबहुअपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि सादं जसुच्च-दे-कं ते-आ-वे-मण अणंतगुणहीणा। ओ-मिच्छ-के-असादं वीरिय-अणंताण-संजलणा ॥ १ ॥ 'सादं'इति वुत्ते सादावेदणीयं घेत्तव्वं । 'जस' इदि वुत्ते जसकित्ती गेझा। कधं णामेगदेसेण णामिल्लविसयसंपचओ ? ण, देव-भामा-सेणसद्देहितो बलदेव-सच्चभामा-भीमसेणादिसु संपचयदसणादो । ण च लोगववहारो चप्पलओ, ववहारिजमाणस्स चप्पलत्तागुववत्तीदो । 'उच्च' इदि वुत्ते उच्चागोदं घेत्तव्वं । एत्थ विरामो किमढे कदो ? जसकित्तिउच्चागोदाणमणुभागो समाणो त्ति जाणावणटुं । 'दे'इदि वुत्ते देवगदी घेत्तव्वा । 'क' उनसे भावकी अपेक्षा वेदनीयकी उत्कृष्ट वेदना अनन्तगुणी है ॥ ६४ ॥ यह सूत्र सुगम है। इसप्रकार जघन्य-उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अब मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे जघन्य-उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करके उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे अनुभागके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं सातावेदनीय, यश-कीर्ति व उच्चगोत्र ये दो प्रकृतियाँ, देवगति, कार्मण शरीर, तेजस शरीर, आहारक शरीर, वैक्रियिक शरीर और मनुष्यगति ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं । औदारिक शरीर, मिथ्यात्व, केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरणअसातावेदनीय व वीर्यान्तराय ये चार प्रकृतियाँ, अनन्तानुबन्धिचतुष्टय और संज्वलनचतुष्टय ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं ॥१॥ 'सादं' ऐसा कहनेपर सातावेदनीयका ग्रहण करना चाहिये । 'जस' कहनसे यशःकीर्तिका ग्रहण करना चाहिये। शंका-नामके एक देशसे नामवाली वस्तुका बोध कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि देव, भामा व सेन शब्दोसे क्रमशः बलदेव, सत्यभामा व भीमसेनका प्रत्यय होता हुआ देखा जाता है। यदि कहा जाय कि लोकव्यवहार चपल होता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, व्यवहारकी विषयभूत वस्तुकी चपलता नहीं बन सकती। 'उच्च' ऐसा कहनेपर उच्चगोत्रका ग्रहण करना चाहिये। शंका-यहॉपर विराम किसलिये किया गया है ? समाधान-यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका अनुभाग समान है, यह जतलानेके लिये यहाँ विराम किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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