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________________ ५२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, ८६. भागमहल्लत्तं गव्वदे। किंच, पञ्चक्खाणावरणस्स उदओ संजदासंजदगुणट्ठाणं जाव संजलणाणं पुण जाव सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदचरिमसमओ त्ति । उवरिमपरिणामेहि' अणंतगुणेहि वि उदयविणासाणुवलंभादो वा णव्वदे जहा संजलणाणुभागादो पञ्चक्खणावरणीयपयडीए अणंतगुणहीणत्तं । माया विसेसहीणा ॥८६॥ पयडिविसेसेण । कुदो पयडिविसेसो णवदे ? मायाए लोभपुरंगमत्तुवलंभादो। कोधो विसेसहीणो ॥ ८७॥ पयडिविसेसेण । कुदो एसो णव्वदे ? उवसंहरिदकोधमहारिसीणं पि लोभ-मायाणमुदओवलंभादो। माणो विसेसहीणो ॥ ८८ ॥ कोधपुरंगमत्तदंसणादो। अपचक्खाणावरणीयलोभो अणंतगुणहीणो ॥ ८६ ॥ परन्तु संज्वलनोंका उदय सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धि संयतके अन्तिम समय तक रहता है। अथवा अनन्तगुण उपरिम परिणामोंके द्वारा संज्वलनके उदयका विनाश नहीं उपलब्ध होता इससे भी जाना जाता है कि संज्वलनके अनुभागकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावरणीय प्रकृतिका अनुभाग अनन्त गुणा हीन है। उससे प्रत्याख्यानावरण माया विशेष हीन है ॥ ८६ ॥ इसका कारण प्रकृतिगत विशेषता है। शंका--यह प्रकृतिगत विशेषता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान--यतः माया लोभपूर्वक उपलब्ध होती है, अतः उससे प्रकृतिगत विशेषता जानी जाती है। उससे प्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष हीन है ॥ ८७ ।। इसका कारण प्रकृतिविशेष है। शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--जिन महर्षियोंने क्रोधका उपसंहार कर लिया है उनके भी लोभ और मायाका उदय उपलब्ध होता है । इससे प्रकृति विशेषका निश्चय होता है। उससे प्रत्याख्यानावरण मान विशेष हीन है ।। ८८ ।। कारण कि वह क्रोधपूर्वक देखा जाता है। उससे अप्रत्याख्यानावरणीय लोभ अनन्तगुणा हीन है ॥ ८९ ॥ १ प्रतिषु-'मेहितो अणंत' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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