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________________ ४, २, ७, २५४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२१३ महसमइयाणमणुभागहाणाणं कालमस्सिदण जवमझत्तसिद्धिदो ? सच्चमेदं, कालजवमझ समयपरूवणादो चेत्र सिद्धमिदि, किं तु तस्स जवमझस्स पारंभो परिसमत्ती च काए वड्डीए हाणीए वा जादा त्ति ण णव्वदे। तस्स पारंभपरिसमत्तीओ एदासु वड्डिहाणीसु जादाओ त्ति जाणावणहूं जवमज्मपरूवणा आगदा । अणंतगुणवड्डीए जवमज्झस्स आदी होदि, पुव्वमुद्दित्तादो गुरूवएसादो वा । परिसेसियादो अणंतगुणहाणीए परिसमत्तो होदि त्ति घेत्तव्वं । जेणदं सुत्वं देसामासियं तेण जवमझादो हेडिम-उवरिमचदु-पंच-छ-सत्तसमयपाओग्गहाणाणं तिसमय-विसमयपाओग्गहाणाणं च पारंभो अणंतगुणवड्डीए 'परिसमत्ती अणंतगुणहाणीए त्ति सिद्धं । संपहि सबढाणाणं पञ्जवसाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि' पजुवसाणपरूवणदाए अणंतगुणस्स उवरि अणंतगुणं भविस्सदि त्ति पज्जवसाणं ॥ २५४ ॥ सुहुमेइंदियजहण्णहाणप्पहुडि पुव्वफ्रूविदासेसट्ठाणाणं पज्जवसाणं अणंतगुणस्सुवरि अणंतगुणं होहिदि त्ति अहोदूण द्विदं । एवं पञ्जवसाणपरूवणा समत्ता । प्ररूपणासे ही आठ समय योग्य असंख्यात लोकमात्र अनुभागस्थानोंको कालका आश्रय करके यवमध्यपना सिद्ध है। समाधान-सचमुच में यह कालयवमध्य समयप्ररूपणासे ही सिद्ध है, किन्तु उस यवमध्यका प्रारम्भ और समाप्ति कौनसी वृद्धि अथवा हानिमें हुई है, यह नहीं जाना जाता है। इस कारण उसका प्रारम्भ और समाप्ति इन वृद्धि हानियोंमें हुई है, यह जतलानेके लिये यवमध्यप्ररूपणा प्राप्त हुई है। अनन्तगुणवृद्धिसे यवमध्यका प्रारम्भ होता है, क्योंकि, वह पूर्वमें उद्दिष्ट है अथवा गुरुका वैसा उपदेश है। पारिशेष रूपसे अनन्तगुणहानिसे उसकी समाप्ति होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है अतएव यवमध्यसे नीचेके और ऊपरके चार, पाँच, छह और सात समय योग्य स्थानोंका तथा तीन समय व दो समय योग्य स्थानोंका प्रारम्भ अनन्तगुणवृद्धिसे और समाप्ति अनन्तगुणहानिसे होती है, यह सिद्ध है। अब सब स्थानोंकी पर्यवसान प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं पर्यवसानप्ररूपणामें अनन्तगुणके ऊपर अनन्तगुणा होगा यह पर्यवसान है॥ २५४॥ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य स्थानसे लेकर पहिले कहे गये समस्त स्थानोंका पर्यवसान अनन्तगुणके ऊपर अनन्तगुणा होगा, इस प्रकार न होकर स्थित है। इस प्रकार पर्यवसानमरूपणा समाप्त हुई। १ अ-आप्रत्योः ‘भणिदं' इति पाठः । २ श्राप्रतौ 'श्राहोदूणिष्ठिदं', ताप्रतौ 'अहोदू [ण ] णिदिई' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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