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________________ २१४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २५५. अप्पाबहुए ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगदाराणि अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥ २५५ ॥ अणंतगुणवड्डीए असंखेजगुणवड्डीए संखेजगुणवड्डीए संखेजभागवड्डीए असंखेजभागवड्डीए अणंतभागवड्डीए अणंतरहेहिमट्ठाणं पेक्खिदण द्विदट्ठाणाणं' जा थोवबहुत्त परूवणा सा अणंतरोवणिधा। जहण्णट्ठाणं पेक्खि दूण अणंतभागभहियादिसरूवेण हिदट्ठाणाणं जा थोवबहुत्तपरूवणा सा परंपरोवणिधा । एवमेत्थ दुविहं चेव अप्पाबहुअं होदि, तदियस्स अप्पाबहुगभंगस्स असंभवादो। तत्थ अणंतरोवणिधाए सव्वत्थोवाणि अणंतगुणब्भहियाणि हाणाणि ॥ २५६ ॥ जदि वि एदमप्पाबहुगं सबढाणाणि अस्सिदूणवद्विदं तो वि अव्वुप्पण्णजणस्स वुप्पत्तिजणणट्टमेगछट्ठाणमस्सिदूण अप्पाबहुगपरूवणा कीरदे । जेण एगछट्ठाणम्मि अणंतगुणवड्डिहाणमेक्कं चेव तेण सव्वत्थोवमिदि भणिदं । असंखेज्जगुणभहियाणि हाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥२५७॥ ___एत्थ गुणणारोएगकंडयमेत्तो होदि, एगछहाणब्भंतरे कंदयमेत्ताणं चेव असंखज्जगुण वड्डीणमुवलंभादो। संखेज्जगुणब्भहियाणि हाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २५८ ॥ अल्पबहुत्व-इस अधिकारमें अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा ये दो अनुयोगद्वार होते हैं ॥ २५५ ॥ ____ अनन्तगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि और अनन्तभागवृद्धिमें अनन्तर अधस्तन स्थानको देखते हुए अवस्थित स्थानोंकी जो अल्पबहुत्वप्ररूपणा है वह अनन्तरोपनिधा कहलाती है। जघन्य स्थानकी अपेक्षा करके अनन्तवें भागसे अधिक इत्यादि स्वरूपसे स्थित स्थानोंकी जो अल्पबहुत्वप्ररूपणा है वह परम्परोपनिधा है। इस प्रकार यहाँ दो प्रकारका ही अल्पबहुत्व होता है, क्योंकि, तृतीय अल्पबहुत्वभंगकी यहाँ सम्भावना नहीं है। उनमें अनन्तरोपनिधासे अनन्तगुणवृद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं ॥ २५६ ॥ यद्यपि यह अल्पबहुत्व सब स्थानोंका आश्रय करके स्थित है तो भी अव्युत्पन्न जनको व्युत्पन्न करानेके लिये एक षट्स्थानका आश्रय करके अल्पबहुत्वप्ररूपणा की जा रही है। चूंकि एक पदस्थानमें अनन्तगुणवृद्धिस्थान एक ही है, अतएव 'सबसे स्तोक' ऐसा कहा गया है। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २५७ ॥ यहाँ गुणकार एक काण्डकमात्र है, क्योंकि एक षट्स्थानके भीतर काण्डक प्रमाण ही असंख्यातगुणवृद्धियाँ पायी जाती है। - उनसे संख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे हैं ॥ २५८ ॥ १ प्रतिषु 'वडिहाणाणं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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