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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २५३. . २१२ ] विज्जदे । संखेज्जगुणवड्डि-हाणिकालो संखेज्जगुणो । कुदो १ पुव्विल्लत्रिसयादो एदासिं विसयस्स संखेज्जगुणत्तदंसणादो । असंखेजगुणवड्ढि हाणिकालो असंखेज्जगुणो । कुदो ? पुव्विल्लवड्डि- हाणिविसयादो एदासिं विसयस्स जुत्तीए असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । को गुणणारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । अनंतगुणवड्डि- हाणिकालो संखेज्जगुणो । कुदो ! पुव्विल्लविसयादो एदासिं वड्डि-हाणीणं विसयस्स जुत्तीए असंखेज्जगुणत्तदंसणादो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । वड्डिकालो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ! हेट्टिमासेसवड्डिकालमेत्तेण । हाणिकालो वि वड्डिकालेण सह किष्ण परूविदो | ण, वड्डिकाण हाणिकालो समाणो त्ति पुध परूवणाए फलाभावादो | एवं वड्डिकालप्पा बहुगं समत्तं । एवं वड्डि परूवणा गदा | जवमज्झपरूवणदाए अनंतगुणवड्डी अनंतगुणहाणी च जवमज्झं ॥ २५३ ॥ एदं किं कालजवम आहो जीवजवमज्झमिदि ? जीवजवमज्यं ण होदि, अणु-. भागहाणे जीवाणमवद्वाणकमस्स पुव्वमपरूविदत्तादो । तदो कालजवमज्झमेदं । जदि एवं तो जवमज्झपरूवणा ण कायव्वा, समयपरूवणाए चैव असंखेज्जलोग मेत्ताण अतएव उसकी प्ररूपणा यहाँ नहीं की जाती है । उससे संख्यातगुणवृद्धि और हानिका काल संख्यातगुणा है, क्योंकि, पूर्वकी वृद्धि और हानिके विषय की अपेक्षा इनका विषय संख्यातगुणा देखा जाता है । उससे असंख्यातगुणवृद्धि और हानि का काल असंख्यात गुणा है, क्योंकि, पूर्वकी वृद्धि और हानिके विषय की अपेक्षा इनका विषय युक्तिसे असंख्याक्र्गुणा पाया जाता है । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है। उससे अनन्तगुणवृद्धि और हानिका काल असंख्यातगुणा है, क्योंकि, पूर्वकी वृद्धि व हानिके विषयकी अपेक्षा इन वृद्धि-हानियों का विषय युक्तिसे असंख्यातगुणा देखा जाता है | गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । वृद्धिका काल उससे विशेष अधिक है । कितने मात्रसे वह विशेष अधिक है ? वह अधस्तन समस्त वृद्धियोंके कालसे विशेष अधिक 1 शंका- वृद्धिकालके साथ हानिकालकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, हानिकाल वृद्धिकालके बराबर है, अतः उसकी अलग से प्ररूपणा करना निष्फल है । इस प्रकार वृद्धि कालका अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार वृद्धिप्ररूपणा समाप्त हुई । मध्यकी प्ररूपणा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि यवमध्य है || २५३ || शंका- यह क्या कालयवमध्य है अथवा जीवयवमध्य ? समाधान - वह जीवयवमध्य नहीं है, क्योंकि, अनुभागस्थानों में जीवोंके अवस्थानके क्रमकी पहिले प्ररूपणा नहीं की गई है। इस कारण यह कालयवमध्य है । शंका- यदि ऐसा है तो फिर यत्रमध्यकी प्ररूपणा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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