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________________ ३६२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,१०,५५. माणिया च उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवमेगो भंगो [१]। अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता; सिया बज्झमाणिया च उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवं बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणं तिसंजोगम्मि दो चेव भंगा [२] । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५५ ॥ जहा संगहणयमस्सिदूण णाणावरणवेयणावेयणाविहाणं परूविदं तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो।। उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा उदिण्णा' फलपत्तविवागा वेयणा ॥५६॥ __उदीर्णस्य फलं उदीर्णफलम्, तत्प्राप्तो विपाको यस्यां सा उदीर्णफलप्राप्तविपाका वेदना भवति; नापरा' । जो कम्मक्खंधो जम्हि समए अण्णाणमुप्पाएदि सो तम्हि चेत्र समए णाणावरणीयवेयणा होदि, ण उत्तरखणे; विणढकम्मपज्जायत्तादो। ण पुव्वखणे वि, तस्स अण्णाणजणणसत्तीए अभावादो । ण च वेयणाए अकारणं वेयणा होदि, अव्ववत्थापसंगादो । तम्हा बज्झमाण-उवसंतकम्माणि वेयणा ण होति, उदिण्णं चेव वेयणा होदि ति मणिदं होदि । इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त इन तीनोंके संयोगमें दो ही भंग होते हैं (२)। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें कथन करना चाहिये ॥ ५५ ॥ जिस प्रकार संग्रह नयका आश्रय करके ज्ञानावरणीय कर्मके वेदनावेदनाविधानकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोके वेदनावेदनाविधानकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदना उदीर्ण फलको प्राप्तविपाकवाली वेदना है ॥ ५६ ॥ उदीर्णका फल उदीर्णफल, उसको प्राप्त है विपाक जिसमें वह उदीर्णफलविपाक वेदना है। इतर नहीं है। अर्थात जो कर्मस्कन्ध जिस समयमें अज्ञानको उत्पन्न कराता है उसी समय ज्ञानावरणीयकी वेदना रूप होता है, न कि उत्तर क्षणमें; क्योंकि, उत्तर क्षणमें उसकी कर्म रूप पर्याय नष्ट होजाती है। पूर्व क्षण में भी उक्त कर्मस्कन्ध ज्ञानावरणीयकी वेदना रूप नहीं होता, क्योंकि, उस समय उसमें अज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव है। और जो वेदनाका कारण ही नहीं है वह वेदना नहीं होता है, क्योंकि, वैसा होनेपर अव्यवस्थाका प्रसंग आता है। इस कारण बध्यमान ब उपशान्त कर्म वेदना नहीं होते हैं, किन्तु उदीर्ण कर्म ही वेदना होता है; यह सूत्रका अभिप्राय है। १ प्रतिषु 'उदिण्णा-' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' प्राप्तविपाकवेदना परा' इति पाठः । वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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