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________________ ४, २, १०,५८.] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [३६३ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५७॥ जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा सेससत्तणं कम्माणं परूवेदव्वं । सद्दणयस्स अवत्तव्यं ॥ ५८ ॥ कुदो ? तस्स विसए दव्वाभावादो। णाणावरणीय-वेयणासदाणं भिण्णत्थाणं भिण्णसरूवाणं समासाभावादो वा पुधभूदेसु अपुधभूदेसु च तस्सेदमिदि संबंधाभावादो वा तिण्णं सद्दणयाणमवत्तव्वं । एवं वेयणवेयणविहाणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें कहना चाहिये ॥ ५७ ॥ __जिस प्रकार ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षासे ज्ञानावरणीयके सम्बन्धमें प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें भी प्ररूपणा करना चाहिये। शब्द नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना अवक्तव्य है ॥ ५८ ॥ इसका कारण यह है कि शब्द नयके विषयमें द्रव्यका अभाव है। अथवा, ज्ञानावरणीय और वेदना इन भिन्न अर्थ व स्वरूपवाले दोनों शब्दोंका समास न हो सकनेसे, अथवा पृथग्भूत और अपृग्भूत उनमें 'यह उसका है। इस प्रकारका सम्बन्ध न बन सकनेसे भी तीनों शब्द नयोंकी अपेक्षासे वह अवक्तव्य है। इस प्रकार वेदनावदनाविधान यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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