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________________ वेयणगदिविहाणाणियोगदारं वेयणगदिविहाणे त्ति ॥१॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं । वेदनायाः गतिर्गमनं विधीयते प्ररूप्यते अनेनेति वेदनागतिविधानम् । कधं कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं जुज्जदे ? ण एस दोसो, जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभूदाणं कम्मक्खंधाणं पि संचरणं पडि विरोहामावादो। किमटुं वेदणागइविहाणं वुच्चदे ? जदि कम्मपदेसा द्विदा चेव होंति तो जीवण देसंतरगदेण सिद्धसमाणेण होदव्वं । कुदो ? सयलकम्माभावादो। ण ताव पुव्वसंचिदकम्माणि अत्थि, तेसिं पुव्वपदेसे थिरसरूवण अवट्टिदाणमेत्थ आगमणाभावादो। ण वट्टमाणकाले वि कम्मसंचओ अस्थि, मिच्छत्तादिपच्चयाणं कम्मेहि सह द्विदाणमेत्थ संभवाभावादो त्ति । ण कम्मरखंधाणमणवट्ठाणं पि जुज्जदे, सव्वजीवाणं मुत्तिप्पसंगादो । तं जहा-ण ताव अप्पिदविदियसमए कम्माणि अस्थि, अवठ्ठाणाभावेण णिम्मूलदो विणहत्तादो। ण उप्पण्णपढमसमए वि फलं देंति, बज्झमाणसमए कम्माणं विवागाभावादो। भावे वा कम्म-कम्मफलाणमेगसमए चेव संभवो होदूण विदियसमएसु वेदनागतिविधान अनुयोगद्वार अधिकार प्राप्त है ॥१॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण करानेवाला है। वेदनाकी गति अर्थात् गमनकी इसके द्वारा प्ररूपणा की जाती है अतएव वह वेदनागतिविधान कहलाता है। शंका-जीवप्रदेशोंमें समवायको प्राप्त हुए कर्मोंका गमन कैसे सम्भव है। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, योगके कारण जीवप्रदेशोंका संचरण होनेपर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कन्धोंके भी संचारमें कोई विरोध नहीं आता। शंका-वेदनागतिविधान अनुयोगद्वार किसलिये कहा जा रहा है ? समाधान-यहि कर्मप्रदेश स्थित ही हों तो देशान्तरको प्राप्त हुए जीवको सिद्ध जीवके समान हो जाना चाहिए,क्योंकि उस समय उसके समस्त कर्मोंका अभाव है। यह कहना कि उसके पूर्वसंचित कर्म विद्यमान हैं, ठीक नहीं है, क्योंकि, वे पूर्व स्थानमें ही स्थिर रूपसे अवस्थित हैं, उनका यहाँ देशान्तरमें आना असम्भव है। वर्तमान कालमें भी उसके कर्मोंका संचय नहीं है, क्योंकि, कर्मों के साथ स्थित मिथ्यात्वादिकं प्रत्ययोंकी यहाँ सम्भावना नहीं है। कर्मस्कन्धोंका अनवस्थान स्वीकार करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर सब जीवोंकी मुक्तिका प्रसंग आता है। यथा-विवक्षित द्वितीय समयमें कर्मोंका अस्तित्व नहीं है, क्योंकि, अवस्थानके न होनेसे उनका निर्मूल नाश हो गया है। उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें वे फल नहीं देते हैं, क्योंकि, बन्ध होनेके समयमें कर्मोंका फल देना असम्भव है। अथवा, यदि बन्ध समयमें फलका देना स्वीकार किया जाय तो फिर कर्म और कर्मफल इन दोनोंकी एक समयमें ही सम्भावना होकर द्वितीय समयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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