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________________ ५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ७७ विणासाभावदसणादो केवलणाणावरणादीणमुदए संते मिच्छत्तस्स बंध-संतविणासोवलंभादो। अणंताणुबंधिलोभो अणंतगुणहीणो ॥ ७७ ॥ कुदो ? पयडिविसेसेण । को पयडिविसेसो ? तेहिंतो दुब्बलत्तं । कधं दुबलभावो णव्वदे ? सम्मत्तपरिणामेहि विसंजोयणाणुवलंभादो चदुण्णं तदुवलंभादो। माया विसेसहीणा ॥ ७८ ॥ कुदो १ पयडिविसेसेण । कोधो विसेसहीणो ॥ ७६ ॥ पयडिविसेसेण । माणो विसेसहीणो ॥८॥ पयडिविसेसेण । संजलणाए लोभो अणंतगुणहीणो ॥ ८१ ॥ अणंताणुवंधि-संजलणाणं मिच्छाइडिम्हि चेव उक्कस्सबंधे संते अणंताणुभागादो विनाश नहीं देखा जाता है, परन्तु केवलज्ञानावरणादिकोंके उदयमें मिथ्यात्वके बन्ध व सत्त्वका विनाश उपलब्ध होता है । इसीसे इनकी प्रकृतिगत विशेषताका ज्ञान होता है। उनसे अनन्तानुबन्धी लोभ अनन्तगुणा हीन है ॥ ७७॥ क्योंकि इसका कारण प्रकृतिगत विशेषता है। शंका-वह प्रकृतिगत विशेषता क्या है ? समाधान--उपर्युक्त चारों प्रकृतियोंकी अपेक्षा इसकी दुर्बलता ही प्रकृतिगत विशेषता है। शंका--इसकी दुर्बलता किस प्रमाणसे जानी जाती है? समाधान--क्योंकि सम्यक्त्व परिणामोंके द्वारा उनका विसंयोजन नहीं उपलब्ध होता, परन्तु इन चारोंका विसंयोजन उपलब्ध होता है, अतएव ज्ञात होता है कि अनन्तानुबन्धी लोभ उन चारोंकी अपेक्षा दुर्बल है। उससे अनन्तानुबन्धी माया विशेष हीन है ॥ ७८ ॥ इसका कारण प्रकृतिगत विशेषता है। उससे अनन्तानुबन्धी क्रोघ विशेषहीन है ॥ ७९ ॥ इसका कारण प्रकृति विशेष है।। उससे अनन्तानुवन्धी मान विशेषहीन है ॥ ८०॥ यहाँ भी कारण प्रकृति विशेष ही है। उससे संज्वलन लोभ अनन्तगुणा हीन है ।। ८१ ॥ शंका-जब कि अनन्तानुबन्धी और संज्वलनका उत्कृष्ट बन्ध मिथ्या दृष्टि गुणस्थानमें ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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