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________________ ४४४] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४,२, १३, २१५. तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २१५ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥२१६॥ एदं पि सुगमं । एवं जहण्णए सत्थाणवेयणासण्णियासे समत्ते सत्थाणवेयणसण्णियासो परिसमत्तो। जो सोपरत्थाणवेयणसण्णियासो सो दुविहो-जहण्णओ परत्थाणवेयणसणियासो चेव उकस्सओ परत्थाणवेयणसण्णियासो चेव ॥२१७॥ एवं परत्थाणवेयणसण्णियासो दुविहो चेव होदि, अण्णस्स असंभवादो । जहण्णुकस्ससंजोगेण तिविहो किण्ण जायदे ? ण, दोहितो वदिरित्तसंजोगाभावादो। [ण] अणुभयपक्खो वि, तस्स सससिंगसमाणत्तादो। जो सो जहण्णओ' परत्थाणवेयणसपिणयासो सो थप्पो॥२१८॥ अहिययअणाणुपुग्वित्तादो। 'सा किमट्ठमेत्थ विवक्खिज्जदे ? तम्हि अवगदे सुहेण जहण्णओ परत्थाणवेयणसण्णियासो अवगम्मदि त्ति । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह अल्पबहुत्वदण्डक सूत्र से जाना जाता है। उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २१५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ २१६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार जघन्य स्वस्थान वेदना संनिकर्ष समाप्त होनेपर स्वथान वेदना संनिकर्ष समाप्त हुआ । जो वह परस्थान वेदनासंनिकर्ष है वह दो प्रकारका है-जघन्य परस्थान वेदना संनिकर्ष और उत्कृष्ट परस्थान वेदना संनिकर्ष ॥ २१७ ॥ इस प्रकारसे परस्थान वेदना संनिकर्ष दो प्रकारका ही है,क्योंकि, और अन्यकी सम्भावना नहीं हैं। शंका-जघन्य और उत्कृष्टके संयोगसे वह तीन प्रकारका क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, दोनोंसे भिन्न संयोगका अभाव है। अनुभय पक्ष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह खरगोश के सींगोंके समान असम्भव है। जो वह जघन्य परस्थान वेदनासंनिकर्ष है वह अभी स्थगित रखा जाता है।।२१८॥ कारण कि यहाँ आनुपूर्वीका अधिकार नहीं है। शंका-उसकी यहाँ विवक्षा किसलिये की जा रही है ? समाधान-उत्कृष्ट परस्थानवेदना संनिकर्षका ज्ञान हो जानेपर चूंकि जघन्य परस्थानवेदना संनिकर्ष सुखपूर्वक जाना जा सकता है, अतएव यहाँ उसकी विवक्षा की गई है। १ अ-काप्रत्योः 'जहण्णाश्रो' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'सो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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