SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ३८. चेव जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया बज्झमाणिया च उवसंता च वेयणा । एवमेत्थ दो चेव भंगा' [२] । सिया बज्झमाणिया च उवसंताओ च ॥ ३८ ॥ संपहि एदस्स विदियसुत्तस्स भंगपमाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तस्स चेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणिया च उवसंताओं च वेयणाओ। एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा बज्झमाणिया, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया बज्झमाणिया च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बे भंगा [२] । एवं बज्झमाण-उवसंताणं दुसंजोगपरूवणा कदा । संपहि उदिण्ण-उवसंताणं दुसंजोगजणिदवेयणापरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि(सिया उदिण्णा च उवसंता च ॥३६ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे ताव उदिण्ण-उवसंतऐग-बहुवयण |३३ जणिदसुत्तपत्थारं १ ३२२ ठविय पुणो उदिण्ण'-उवसंताणं जीव-पयडि-समयएगवयणेहि अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदना है । इस प्रकार यहाँ दो ही भंग हैं (२)। कथंचित् बध्यमान (एक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ ३८॥ अब इस द्वितीय सूत्रके भंगोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई बध्यमान, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् बध्यमान और उपशान्त वेदनायें हैं। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। इस प्रकार बध्यमान और उपशान्त इन दोके संयोगकी प्ररूपणा की गई है। अब उदीर्ण और उपशान्त इन दोके संयोगसे उत्पन्न वेदनाकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते है कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है ॥ ३९ ॥ इस सूत्रके अर्थका कथन करते समय पहिले उदीर्ण और उपशान्तके एक व बहुवचनसे उदर्ण एक | एक अनेक अनेक एक | एक | उत्पन्न सूत्रके प्रस्तारको स्थापित करके फिर उदीर्णव | उप०| एक अनेक एक अनेक अनेक अनेक १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भंगो' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'उदिण्णा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy