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________________ २३८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २६७ चरिमअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चाले पुणो विदियपरिवाडीए असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियछट्ठाणाणि रूवूणछट्ठाणसहगदाणि हेहिमअंकुसायारहाणेहि सेडिबद्धेहि पुष्फपहिण्णएहि च सहियाणि उप्पज्जंति । पुणो एदेसिं चेव हाणाणं दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिम-पंचचरिमादिहदहदसमुप्पत्तियअटुंक-उव्वंकाणं विचाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पाइय ओदारेदव्यं जाव एदेसिं चेव हाणाणं पढमअहंक-उव्वंकंतरे ति । एवं सेसपढमपरिवाडिसमुप्पण्णहदहदसमुप्पत्तियअहुंकुव्वंकाणं विचाले विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि उप्पादेदूण ओदारेदव्वं जाव अप्पडिसिद्धबंधसमुप्पत्तियपढमअटुंक-उव्वंकविच्चाले त्ति । पुणो एदम्हि विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्टाणाणि अस्थि । पुणो एदेसिं द्वाणाणं' चरिमहदसमुप्पत्तियअट्ठकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अत्थि। पुणो एदेसिं द्वाणाणं' चरिमहदहदसमुप्पत्तियअटुंकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अस्थि । पुणो एदेसि हाणाणं चरिमहदहदसमुप्पत्तियअट्ठकुव्वंकाणं विचाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि उप्पज्जति । एवं चेव अप्पिददुचरिम-तिचरिमअट्ठकुव्वंकाणं अंतरेसु असंखेज्जलोगमेत्ताणि ऊवकके अन्तरालमें एक कम षस्थानके साथ अधस्तन अंकुशाकार श्रेणिबद्ध एवं पुष्पप्रकीर्णक स्थानोंसे सहित होकर फिरसे द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होते हैं । पश्चात् इन्हीं स्थानोंके द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम और पंचचरम आदि हतहतसमु. त्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके अन्तरालमें द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसम्त्पत्तिकस्थानोंको उत्पन्न कराकर इन्हीं स्थानोंके प्रथम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल तक उतारना चाहिये। इस प्रकार प्रथम परिपाटीसे उत्पन्न शेष हतहतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके मध्य में द्वितीय परिपाटीसे हतहतसमुत्पत्तिक स्थानोंको उत्पन्न कराकर अप्रतिषिद्ध बन्धसमुत्पत्तिक प्रथम अष्टांक और ऊवकके अन्तराल तक उतारना चाहिये । पुनः इस अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके अन्तिम हतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊबकके अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। पुनः इन स्थानोंके अन्तिम हतहत. समत्पत्तिक श्रष्टांक और ऊवकके अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके अन्तिम हतहतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊबकके अन्तरालमें द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोकमात्र हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकारसे विवक्षित द्विचरम व त्रिचरम अष्टांक व उर्वकके अन्तरालोंमें द्वितीय परिपाटीसे असंख्यात लोक प्रमाण १ अतोऽग्रे ताप्रतिपाठ:-चरिमहदहदसमुप्पचियअहंकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियहाणाणि अस्थि । पुणो एदेसिं हाणाणं चरिमहदसमुप्पत्तियअहंकुव्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तिय. उप्पज्जति । एवं चेव..."। २ अतोऽग्र अाप्रतिपाठस्त्वेवंविधोऽस्तिहदहदसमुप्पत्तियअहंकु० विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्ति हाणाणि उप्पज्जति एवं चेव.....। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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