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________________ ४, २, ७, २४७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२०९ होदि । क, एदं लब्मदे ? दोणं पि अत्थाणं वाचगभावेण एदस्स सुत्तस्स उवलंभादो । एत्थ गुणगारपमाणमसंखेजा लोगा । तं कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो। . . वड्डिपरूवणदाए अस्थि अणंतभागवड्डि-हाणी असंखेज्जभागवड्डिहाणी संखेजभागवहि-हाणी संखेजगुणवड्डि-हाणी असंखेजगुणवडिहाणी अणंतगुणवडि-हाणी ॥ २४६ ॥ ___एदेण सुत्तेण छण्णं वड्डि-हाणीणं संतपरूवणा कदा। छहाणपरूवणाए चेव अवगदसंताणं छण्णं वड्डि-हाणीणं ण एत्थ परूवणा कीरदे ?, पुणरुत्तदोसप्पसंगादो ? ण एत्थ पुणरुत्तदोसो ढुक्कदे, वड्डि-हाणीणं कालस्स पमाणप्पाबहुगपरूवणटुं छण्णं वड्डिहाणीणं संतस्स संभालणकरणादो। अधवा', अणंतगुणवड्डि-हाणिकालो त्ति कालसहस्स अज्झाहारे कदे छण्णं वड्डि-हाणीणं कालस्स संतपरूवणा त्ति कट्ट ण पुणरुत्तदोसो ढुक्कदे । पंचवडि-पंचहाणोओ केवचिरं कालादो होंति ? ॥ २४७॥ एदं पुच्छासुत्तं एगसमयमादि कादण जाव कप्पो त्ति' एदं कालं अवेक्खदे । शंका- यह कैसे पाया जाता है ? समाधान-कारण कि यह सूत्र इन दोनों ही अर्थों के वाचक स्वरूपसे पाया जाता है। यहाँ गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? वह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। वृद्धिप्ररूपणाकी अपेक्षा अनन्तभागवृद्धि-हानि, असंख्यातभागवृद्धि-हानि संख्यातभागवृद्धि-हानि, संख्यातगुणवृद्धि हानि, असंख्यातगुण वृद्धि-हानि और अनन्तगुणवृद्धि-हानि होती है ॥ २४६ ॥ इस सूत्रके द्वारा छह वृद्धियों व हानियोंकी प्ररूपणा की गई है। शंका --छह वृद्धियों व हानियोंका अस्तित्व चूंकि षट्स्थानप्ररूपणासे ही जाना जा चुका है अतएव उनकी प्ररूपणा यहाँ नहीं की जानी चाहिये, क्योंकि, पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है ? समाधान-यहाँ पुनरुक्त दोष नहीं आता है, क्योंकि, वृद्धियों व हानियोंके कालके प्रमाण व अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेके लिये इस स्त्र द्वारा छह वृद्धियों व हानियोंके अस्तित्वका स्मरण करण्या गया है। अथवा अनन्तगुणवृद्धि-हानिकाल इस प्रकार काल शब्दका अध्याहार करनेपर छह वृद्धियों व हानियोंके कालकी यह सत्प्ररूपणा है, ऐसा मानकर पुनरुक्त दोष नहीं आता है। पाँच वृद्धियाँ व हानियाँ कितने काल तक होती हैं ? || २४७ ॥ यह पृच्छासूत्र एक समयसे लेकर जहाँ तक सम्भव है उतने कालकी अपेक्षा करता है। १ अ-आप्रत्यो पलभ्यते पदमिदम् , ताप्रती तूपलभ्यते तत् । २ आप्रतौ 'जाव उक्करसो त्ति' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'उवेक्खदे' इति पाठः । छ. १२-२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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