SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २,७, २४५. सुहुमतेउकाइया' पवेसणेण असंखेजा लोगा ॥ २४२॥ अण्णकाइएहिंतो आगंतूण सुहमअगणिकाएसु उववादो पवेसणं णाम । तेण पवेसणेण विसेसियतेउक्काइया जीवा असंखेजलोगमेत्ता होदण थोवो भवंति उवरि भण्णमाणपदेहितो। अगणिकाइया असंखेजगुणा ॥२४३ ॥ अगणिकाइयणामकम्मोदइल्ला सव्वे जीवा अगणिकाइया णाम । ते असंखेजगुणा, अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो । को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तं । कायहिदी असंखेजगुणा ॥ २४४ ॥ अण्णकाइएहिंतो अगणिकाइएसु उप्पण्णपढमसमए चेव अगणिकाइयणामकम्मस्स उदओ होदि । तदुदिदपढमसमयप्पहुडि उक्कस्सेण जाव असंखेजा लोगा ति तदुदयकालो होदि । सो कालो अगणिकाइयकायहिदी णाम । सा अगणिकाइयरासीदो असंखेजगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४५ ॥ अणुभागहाणाणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि च असंखेजगुणा ति भणिदं सूक्ष्म तेजकायिक जीव प्रवेशकी अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २४२ ॥ अन्यकायिक जीवोंमेंसे आकर सूक्ष्म अग्निकायिक जीवोंमें उत्पन्न होनेका नाम प्रवेश है। उस प्रवेशसे विशेषताको प्राप्त हुए तेजकायिक जीव असंख्यात लोक प्रमाण होकर आगे कहे जानेवाले पदोंकी अपेक्षा स्तोक हैं। उनसे अग्निकायिक जीव असंख्यातगणे हैं ॥ २४३ ॥ अग्निकायिक नामकर्मके उदयसे संयुक्त सब जीव अग्निकायिक कहे जाते हैं। वे पूर्वोक्त जीवोंसे असंख्यातगुणे हैं क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्तमें संचित होते हैं। गुणकार क्या हैं ? गुणकार अन्तर्मुहूर्त है । अग्निकायिकोंकी कायस्थिति उनसे असंख्यातगुणी है ॥ २४४ ॥ अन्यकायिक जीवोंमेंसे अग्निकायिक जीवों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही अग्निकायिक नामकर्मका उदय होता है। उसके उदय युक्त प्रथम समयसे लेकर उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण उसका उदयकाल है। वह काल अग्निकायिकोंकी कायस्थिति कहा जाता है। वह ( कायस्थिति ) अग्निकायिक जीवोंकी राशिसे असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक है। अनुभागबन्धाध्यवसानवस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २४५॥ अनुभागस्थान और अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं, यह अभिप्राय है। १ श्र-अआप्रत्योः 'तेउक्काइय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy