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________________ ४, २, ८, ११] वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तविहाणं [२९९ ( सिया जीवाणं च णोजीवाणं च ॥६॥ जदा जीव-णोजीवाणं च अवयवविसयमणवयवविसयं च बहुत्तं विवक्खियं तदा जीवाणं च णोजीवाणं च वेयणा । एवं सत्तण्ण कम्माण ॥ १०॥ जहा णाणावरणीयवेयणा परूविदा तहा सत्तणं कम्माणं परूवेदव्वा, विसेसा भावादो। संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स वा ॥ ११ ॥ जो जस्स फलमणुभवदि तं तस्स होदि ति सयललोअप्पसिद्धो ववहारो। ण च कम्मफलं कम्माणि चेव भुंजंति, अप्पाणम्मि किरियाविरोहादो। णिचेयणतणेण णाणंदंसणविरहिदेसु पोग्गलक्खंधेसु णाणावरणीयवावारस्स वइफलप्पसंगादो च ण णोजीवस्स, किं तु जीवस्सेव । ण च जीवदव्ववदिरित्तो णोजीवो होदि, जीवेण सह एयत्तमावण्णस्स णोजीवत्तविरोहादो। एदं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहि सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो। एत्थ सिया सद्दो किण्ण पउत्तो ? ण एस दोसो, पयारंतराभावादो। जदि सुद्धसंगहणए वेयणाए सामिस्स अण्णो वि पयारो अत्थि तो सिया सद्दो वुचदे । कथंचित् वह जीवोंके और नोजीवोंके होती है ॥ ॥ जब जीवों और नोजीवोंके अवयवविषयक और अनवयवविषयक बहुत्वकी विवक्षा हो तब जीवोंके और नोजीवोंके वेदना होती है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें कहना चाहिये ॥ १० ॥ जैसे ज्ञानावरणीय कर्म सम्बन्धी वेदनाकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी वेदनाकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कुछ विशेषता नहीं है। संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है ॥ ११ ॥ जो जिसके फलका अनुभव करता है वह उसका स्वामी होता है, यह व्यवहार सकल जनोंमें प्रसिद्ध है। परन्तु कर्मके फलको कर्म ही तो भोगते नहीं हैं, क्योंकि, अपने आपमें क्रियाका विरोध है, तथा अचेतन होनेसे ज्ञान-दर्शनसे रहित पुद्गलस्कन्धोंमें ज्ञानावरणीयके व्यापारकी विफलताका प्रसंग होनेसे भी उसकी वेदना नोजीवके नहीं होती, किन्तु जीवके ही होती है। दूसरी बात यह है कि जीव द्रव्यसे भिन्न नोजीव है ही नहीं, क्योंकि, जीवके साथ एकताको प्राप्त पुद्गलस्कन्धके नोजीव होनेका विरोध है । यह कथन शुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा है, क्योंकि, जीवोंके और उनके साथ नोजीवोंकी एकता स्वीकार की गई है। शंका-यहाँ सूत्र में 'स्यात्' शब्द प्रयोग क्यों नहीं किया गया है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहाँ दूसरा कोई प्रकार नहीं है। यदि शुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा वेदनाके स्वामीका कोई दूसरा भी प्रकार होता तो 'स्यात्' शब्दका प्रयोग १ताप्रतौ 'जीवाणं ताहि इति पाठ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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