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________________ ४, २, ७, १८०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पढमा चूलिया दंसणमोहखवगस्स गुणसेडिगुणो असंखेजगुणो ॥ १७६ ॥ अताणुबंध विसंजोएंतस्स दोष्णं गुणसेडीणमुक्कस्सगुणगारादो' दंसणमोहणीयं खवेंतस्स दुविहगुणसेडीणं जहण्णगुणगारो असंखेज्जगुणो । तीदाणागद-वट्टमाणपदेसगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो दट्ठव्वो । कसायउवसामगस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो ॥ १८०॥ दंसणमोहणीयं खर्वेतस्स दुविहगुणसेडीणमुक्कस्सगुणगारादो कसाए उवसामेंतस्स जहणओ वि गुणगारो असंखेज्जगुणो । दंसणमोहणीयखवगगुणसे डि गुणगारादो अपुव्वउवसामगस्स गुणसेडिगुणगारो असंखेज्जगुणो । अणियट्टिउवसामगस्स गुणसेडिगुणगारो असंखेज्जगुणो । सुहुमसां पराइयस्स गुणसेडिगुणगारो असंखेज्जगुणो । एवं चारितमोहक्वगाणं पिge gध गुणगारप्पाबहुए भण्णमाणे गुणसे डिणिज्जरा एक्कारसविहा फिट्टिदूण पण्णारसविहा होदि त्ति भणिदे ण णइगमणए अवलंबिज्जमाणे तिष्णमुवसागगाणं तिष्णं खवगाणं च एगत्तपणाए एक्कारसगुण से डिणिज्जरुववत्चीदो । [ ८३ उससे दर्शनमोहका क्षय करनेवाले जीवका गुणश्रेणिगुणकार असंख्पात - गुण हैं ।। १७९ ।। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जीवके दोनों गुणश्रेणि सम्बन्धी उत्कृष्ट गुणकारकी अपेक्षा दर्शनमोहका क्षय करनेवाले जीवकी दोनों प्रकारकी गुणश्रेणियोंका जघन्य गुणकार असंख्यातगुणा है । अतीत, अनागत और वर्तमान प्रदेशगुणश्रेणिगुणकार पल्योपमके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये । उससे कषायोपशामक जीवका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥ १८० ॥ दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवाले जीवकी दोनों प्रकारकी गुणश्रेणियोंके उत्कृष्ट गुणकारकी अपेक्षा कषायों का उपशम करनेवाले जीवका जघन्य गुणकार असंख्यातगुणा है | दर्शनमोहनीयके क्षपक के गुणश्रेणिगुणकारसे अपूर्व करण उपशामकका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है । उससे अनिवृत्तिकरण उपशामकका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्मसाम्परायिकका गुणकार असंख्यातगुणा है । शंका- इसी प्रकार चारित्रमोहके क्षपकोंके भी पृथक् पृथकू गुणकारके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करनेपर गुणश्रेणिनिर्जरा ग्यारह प्रकारकी न रहकर पन्द्रह प्रकारकी हो जाती है ? समाधान- इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि वह पन्द्रह प्रकारकी नहीं होती, क्योंकि नैगम नयका अवलम्बन करनेपर तीन उपशामकों और तीन क्षपकोंके एकत्वकी विवक्षा होनेपर ग्यारह प्रकारकी गुणश्रेणिनिर्जरा बन जाती है । १ ता प्रतिपाठोऽयम् । श्रा -- प्रत्योः 'गुणगारो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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