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________________ ४, २, ७,७-२०१] वेयणमहाहियारे वैयणभावविहाणे विदिया चूलिया [११६ फद्दयंतरं। सा' चेव वड्डी एगफद्दयवग्गणाहि ऊणा उवरिम-हेट्ठिमफद्दयाणं जहण्णुकस्सवग्गणाणमंतरं होदि । तदियफद्दयं घेत्तूण विदियफद्दयं पडिरासिय पक्खित्ते तदियफदयं होदि । वडिददव्वं रूवृणं फद्दयंतरं । एगफद्दयवग्गणाहि ऊणं जहण्णुक्कस्सवग्गणतरं । एवं णेयव्वं जाव विरलणदुचरिमस्वधरिदं दुचरिमफद्दयम्मि पक्खित्ते विदियं ठाणं चरिमफद्दओ च उप्पज्जदि। ण च विदियहाणस्स तस्सेव चरिमफद्दयस्स च एगत्त, चरिमरूवधरिदवड्डीए अक्कमेण वड्ढिदूण कमवुड्डिमुवगयाए पाधण्णपदे फद्दयत्तब्भुवगमादो दुचरिमफद्दएण सह चरिमवड्डीए हाणत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो वड्डीए पक्खित्ताए फद्दयमुप्पज्जदि त्ति कधं घडदे ? ण एस दोसो, संजोगसरूवेण पुव्वणिप्फण्णफद्दयस्स वि कधं चि उप्पत्तीए अब्भुवगमादो । ___एदस्स विदियट्ठोणस्स फद्दयंतराणि जहण्णहाणफद्दयंतरेहिंतो अणंतगुणाणि । को गुणकारो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । तं जहा-जहण्णहाणफद्दयसलागाहि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाहि सिद्धाणमणंतभागमेत्ताहि जहण्णट्ठाणे भागे हिदे एगं फद्दयं होदि । तं रूवूणं जहण्णट्ठाणफद्दयंतरं । पुणो विदियट्ठाणवड्डेि वड्डिफद्दयसलागाहि खंडिदे फद्दयं पर द्वितीय स्पर्द्धक होता है । एक कम वृद्धि उक्त स्पर्द्धकोंका अन्तर होती है । एक स्पर्द्धककी वर्गणाओंसे हीन वही वृद्धि अधस्तन और उपरिम स्पर्द्धकोंकी जघन्य एवं उत्कृष्ट वर्गणाओंका अन्तर होती है। ततीय स्पर्द्धकको ग्रहण कर द्वितीय स्पर्द्धकको प्रतिराशि करके उसमें मिलानेपर तृतीय स्पर्द्धक होता है । एक कम वृद्धिंगत द्रव्य दोनों स्पर्द्धकोंका अन्तर होता है। एक स्पर्द्धककी वर्गणाओंसे हीन वही जघन्य व उत्कृष्ट वर्गणाओंका अन्तर होता है। इस प्रकार विरलन राशिके द्विचरम अंकके प्रति प्राप्त राशिको द्विचरम स्पर्द्धकमें मिलानेपर द्वितीय स्थान और अन्तिम स्पर्द्धकके उत्पन्न होने तक ले जाना चाहिये। यहाँ द्वितीय स्थान और उसका ही अन्तिम स्पर्द्धक एक नहीं हो सकते, क्योंकि, अन्तिम अंकके प्रति प्राप्त वृद्धिसे युगपत् वृद्धिंगत होकर क्रमवृद्धिको प्राप्त [अनुभागकी वृद्धिको ] ताधान्य पदमें स्पर्द्धक स्वीकार किया गया है, तथा द्विचरम स्पर्द्धकके साथ अन्तिम वृद्धिको स्थान स्वीकार किया गया है। ___शंका-यदि ऐसा है तो वृद्धिका प्रक्षेप करनेपर स्पर्द्धक होता है, यह कथन कैसे घटित होगा? _समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संयोग स्वरूपसे पहिले उत्पन्न हुए स्पर्द्धककी भी कथंचित् उत्पत्ति स्वीकार की गई है। इस द्वितीय स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकोंके अन्तर जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकोंके अन्तरोंसे अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? वह सब जीवोंसे अनन्तगुणा है । यथा-अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पद्धक शलाकाओंका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर एक स्पर्द्धक होता है। उसमें से एक कम करनेपर जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकोंका १ अप्रतौ 'सो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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