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________________ १२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, २, ७, २०१.]. होदि । तम्हि रूवणे कदे फद्दयंतरं होदि । जहण्णट्ठाणफद्दएण विदियहाणवड्डिफद्दए भागे हिदे' सव्वजीवेहि अणंतगुणो गुणगारो आगच्छदि। एवं फद्दयंतरस्स वि गुणगारो साधेयव्यो । एवं सुहुमसांपराइयतिचरिमसमयप्पहुडि जाणि बंधढाणाणि तेसिं सव्वेसिं पि एवं चेव फद्दयरचणा कायव्वा । णवरि विदियबंधहाणादो तदियबंधट्ठाणमणंतगुणं । तदियादो चउत्थबंधटाणमणंतगुणं । एवमणंतगुणाए सेडीए सुहुमसांपराइय-अणियट्टिखवगद्धासु णेदव्वं । पुणो एदेसु बंधहाणेसु हेट्ठिमट्ठाणंतरादो उवरिमट्ठाणंतरमणंतगुणं । हेडिमट्ठाणफद्दयंतरादो वि उवरिमाणफद्दयंतरमणंतगुणं । कुदो ? अणंतगुणाए सेडीए वड्डिमुवगत्तादो। सव्वविसुद्धसंजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइटिस्स णाणावरणजहण्ण द्विदिबंधपाओग्गाणि असंखेज्जलोगमेत्तविसोहिहाणाणि । पुणो तेसिं उक्कस्सचरिम विसोहीए असंज्जलोगमेत्तउत्तरकारणसहायाए वज्झमाणअणुभागविसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि।। तत्थ असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि हवंति । किं छट्ठाणं णाम ? जत्थ अणंतभागवड्डिहाणाणि कंदयमेत्ताणि [गंतूण ] सइमसंखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो वि अणंतभागवड्डीए चेव कंदयमेत्तट्ठाणाणि गंतूण विदियअन्तर होता है । फिर द्वितीय स्थानकी वृद्धिको वृद्धिस्पर्द्धकशलाकाओंसे खण्डित करनेपर स्पर्धक होता है। उसमें से एक कम करनेपर स्पद्ध कोंका अन्तर होता है । जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्द्धकका द्वितीय स्थान सम्बन्धी वृद्धिस्पर्द्ध कमें भाग देनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार आता है। इसी प्रकार स्पद्ध कोंके अन्तरका भी गुणकार सिद्ध करना चाहिये। . इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकके त्रिचरम समयसे लेकर जो बन्धस्थान हैं उन सभीके स्पर्द्ध कोंकी रचना इसी प्रकारसे करना चाहिये। विशेष इतना है कि द्वितीय बन्धस्थानसे तृतीय बन्धस्थान अनन्तगुणा है। तृतीय से चतुर्थ बन्धस्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार अनन्तगुणित श्रेणिसे सूक्ष्मसाम्पराय और अनिवृत्तिकरण क्षपककालोंमें ले जाना चाहिये। पुनः इन बन्धस्थानोंमें अधस्तन स्थानके अन्तरसे उपरिम स्थानका अन्तर अनन्तगुणा है। तथा अधस्तन स्थानके स्पर्धकोंके अन्तरसे भी उपरिम स्थानके स्पधकोंका अन्तर अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह अनन्तगुणित श्रेणिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है। . संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके ज्ञानावरणके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य असंख्यात लोक मात्र विशुद्धिस्थान हैं। फिर उनमें असंख्यात लोक मात्र उत्तर कारणोंकी सहायता युक्त उत्कृष्ट अन्तिम विशुद्धिके द्वारा बाँधे जानेवाले अनुभागके विशुद्धिस्थान असंख्यात लोक मात्र हैं। वहाँ असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं। शंका-षट्स्थान किसे कहते हैं ? समाधान-जहाँपर अनन्त भागवृद्धिस्थान काण्डक प्रमाण जाकर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। फिर भी अनन्त भागवृद्धिके ही काण्डक प्रमाण स्थान जाकर द्वितीय असंख्यात १ अ-आप्रत्योः 'भागे हि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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