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________________ ४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१२१ असंखेज्जमागवडी होदि । अणेण विहाणेण कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डीसु गदासु पुणो कंदयमेत्तअणंतभागवड्डीयो गंतूण सई संखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो पुव्वुद्दिट्टहेडिल्लमद्धाणं सयलं गंतूण विदिया संखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो वि तेत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण तदिया संखेज्जभागवड्डी होदि । एवं कंदयमेत्तासु संखेज्जभागवड्डीसु गदासु अण्णेगं संखेज्जमागवड्डिसमुप्पत्तीए पाओग्गमद्धाणं गंतूण सई संखेज्जगुणवड्डी होदि । पुणो हेडिमद्धाणं संपुण्णमुवरि गंतूण विदिया संखेज्जगुणवड्डी होदि । एदेण विहाणेण कंदयमेत्तासु संखेज्जगुणवड्डीसु गदासु पुणो अण्णेगं संखेज्जगुणवविविसयं गंतूण सइमसंखेज्जगुणवड्डी होदि । पुणो हेछिल्लमद्धाणं संपुण्णं गंतूण विदियमसंखेज्जगुणवड्डिाणं होदि । एवं कंदयमेत्तासु असंखेज्जगुणवड्डीसु गदासु पुणो अण्णेगमसंखेज्जगुणवड्डिविसयं गंतूण अणंतगुणवड्डी सई होदि । एदं एगछट्ठाणं । एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणि । पुणो तत्थ सव्वजहणं णाणावरणीयस्स अणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो एदेसिंचेव असंखेज्जलोगमेत्तछठाणाणंणाणावरणीयउकस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव चरिमसमयमिच्छाइडिस्स जहण्णविसोहीए बज्झमाणजहण्णाणुभागहाणमणंतगुणं । पुणो एदेर्सि चेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं उक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो दुचरिमसमयमिच्छाइहिस्स उकस्सविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणम भागवृद्धि होती है। इस क्रमसे काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियोंके वीतनेपर फिरसे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियाँ जाकर एक बार संख्यातभागवृद्धि होती है। पश्चात् पूर्वोदिष्ट समस्त अधस्तन अध्वान जाकर द्वितीय संख्यातभागवृद्धि होती है। फिरसे भी उतना मात्र ही अध्वान जाकर तृतीय संख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियाँके बीतनेपर संख्यातभागवृद्धिकी उत्पत्तिके योग्य एक अन्य अध्वान जाकर एक बार संख्यातगुणवृद्धि होती है। पश्चात फिरसे आगे समस्त अधस्तन अध्वान जाकर द्वितीय संख्यात गुणवृद्धि होती है। इस विधिसे काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियोंके वीतनेपर फिरसे संख्यातगुणवृद्धि विषयक एक अन्य अध्वान जाकर एक बार असंख्यातगुणवृद्धि होती है। फिर अधस्तन समस्त अध्वान जाकर असंख्यातगुणवृद्धिका द्वितीय स्थान होता है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धियों के बीतनेपर फिर असंख्यातगुणवृद्धिविषयक एक अन्य अध्वान जाकर एक वार अनन्तगुणवृद्धि होती है। यह एक षट्स्थान है । ऐसे असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं। पुनः उनमें ज्ञानावरणीयका सर्वजघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर इन्हीं असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंमें ज्ञानावरणीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्थस्थान अनन्तगुणा है। फिर अन्तिम समयवर्ती उसी मिथ्यादृष्टिका जघन्य विशुद्धिके द्वारा बाँधा जानेवाला जघन्य अनुभागस्थान अनन्तगुणा है। फिर इन्हीं असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर द्विचरम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी छ. १२-१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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