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________________ ४, २, १४, ३८. ] वेण परिमाणविद्दाणाणियोगद्दार [ ४३ उक्कस्स डिदिबंधो। बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदिय - सुदुम- साधारण- अपजत्त - पंचमसंठाणपंचम संघडणाणमट्ठारससागरोवमकोडाकोडीयो उकस्सट्ठिदिबंधो । चउत्थसंठाण - चउत्थसंघडणाणं सोलससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं पण्णारससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो होदि । तदियसंठाणतदिय संघडणाणं चोदसस गरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो । विदियसंठाण-विदियसंघडणाणं बारससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सडिदिबंधो । देवगड - देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-समचउरससंठाण वञ्ज रिस हव हरणारायणसंघडण - पसत्थविहाय ग दि थिर--सुभ-सुभगसुस्सर - आदेज-जस गित्तीणं दससागरोवमकोडाकोडीयो उक्कस्सट्ठिदिबंधो' । एदाहि हि ध ध समयपबद्ध गुणिदे सग-सगसमयपबद्धट्टदा होदि । संपहि आहारदुगस्स समयपबद्धदृदा संखेअंतोमुहुत्तमेत्ता । तं जहा - अडवस्संतोमुहुत्तस्वरि संजदो अंतो मुहुत्त कालमाहारदुगं बंधिय णियमा थक्कदि, पमत्तद्धाए आहार - दुगस्स बंधाभावादो। एवमंतोमुहुत्तमबंधगो होदूण पुणो अंतोमुहुत्तं बंधगो होदि, पडिवण्णअप्पमत्तभावत्तादो । एवमप्पमत्त पमत्तद्वासु बंधगो अबंधगो च होदूण ताव गच्छदि जाव yoवकोडिचरिमसमओ ति । एदे अंतोमुहुत्ते व्विणिण गहिदे संखेजंउत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, पांचवां संस्थान और पांचवां संहनन इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । चौथे संस्थान और चौथे संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सोलह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रयोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । तृतीय संस्थान और तृतीय संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चौदह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । द्वितीय संस्थान और द्वितीय संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । देवगति, देवगतिप्रयोग्यानुपूर्वी, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभवत्रनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशःकीर्ति इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है। इन स्थितियोंके द्वारा पृथक् पृथक् समयप्रबद्धको गुणित करनेपर अपनी अपनी समयबद्धार्थताका प्रमाण होता है । अब आहारकद्विककी समयप्रबद्धार्थताका प्रमाण संख्यात अन्तर्मुहूर्त मात्र है । यथा - आठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्तके ऊपर संयत होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक आहारकद्विकको बाँधकर नियमसे थक जाता है, कारण कि प्रमत्तसंयतकाल में आहारकद्विकका बन्ध नहीं होता है । इस प्रकार से अन्तमुहूर्त काल तक अबन्धक होकर फिरसे अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्धक होता है, क्योंकि, तब उसने अप्रमत्तभावको प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार अप्रमत्त व प्रमत्त कालोंमें क्रमसे बन्धक व अबन्धक होकर तब तक जाता है जब तक पूर्वको टिका अन्तिम समय प्राप्त होता है । इन अन्तर्मुहूतों को समुच्चय १. खं. १, भा. ६, पु. ६, चू. ६, सू. ७, १६, १६, ३०, ३६, ३६, ४२, गो. क. १२५-१३२ । २ ताप्रती - मबंगो होदून [ पुणो तोमुहुत्तमबंधगो होदूण ] इति पाठः । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । श्रश्राका ताप्रतिषु 'एवमप्पमत्तद्धासु' इति पाठः । ४ - श्राकाप्रतिषु 'पुधकोडि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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