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________________ १२६] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ७, २०१. बंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणमुक्कस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमादिसमएसु अणंतगुणकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तं त्ति । तदो हदसमुप्पत्तियं 'कादणच्छिदसुहुमणिगोदअपज्जत्तसत्थाणुक्कस्सविसोहिहाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं। पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणउक्कस्साणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव सुहुमणिगोदअपज्जत्तसत्थाणजहण्णविसोहिट्ठाणस्स णाणावरणजहण्णाणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव असंखेज्जलोगमेत्तछहाणाणं णाणावरणबंध-संतसरिसअणुभागबंधट्ठाणमणंतगुणं । एदेसि हाणाणमंतराणि छवड्डीए अवहिदाणि । तं जहा-अणंतभागवड्डिहाणंत राणि फद्दयंतराणि च अणंतभागब्भहियाणि । अणंतभागवड्डिहाणंतराणि फद्दयंतराणि' च पेक्खिदण असंखेज्जभागवड्डि-[ संखेजमागवड्डि-] संखेजगुणवड्डि-असंखेञ्जगुणवड्डिअणंतगुणवड्तीर्ण हाणंतराणि फद्दयंतराणि च अणंतगुणाणि । असंखेजभागवड्डिअब्भंतरमगंतभागवड्डीणं द्वाणंतराणि फद्दयंतराणि च असंखेजभागब्भहियाणि । संखेञ्जभागवड्डिअब्भतरं अणंतभागवड्डीणं ठाणंतरफद्दयंतराणि च संखेजभागब्भहियाणि । संखेजगुणवड्डिअभंतरअणंतभागवड्डीणं हाणंतर-फद्दयंतराणि च संखेजगुणब्भहियाणि । असंखेजगुणवड्डि ख्यात लोक मात्र षट्स्थानों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार द्विचमादिक समयोंमें अनन्तगुणितक्रमसे अन्तर्मुहूर्त तक उतारना चाहिये। तत्पश्चात् हतसमुत्पत्ति करके स्थित सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके स्वत्थान उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षस्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसी सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके स्वस्थान जघन्य विशुद्धिस्थान सम्बन्धी ज्ञानावरणका जघन्य अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। फिर उसके ही असंख्यात लोक मात्र षस्थानों सम्बन्धी ज्ञानावरणका बन्ध व सत्त्वके सहश अनुभाग बन्धस्थान अनन्तगुणा है। ___ इन स्थानोंके अन्तर छह प्रकारकी वृद्धि में अवस्थित हैं। यथा-अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तर और स्पर्द्धकोंके अन्त र अनन्तवेंभागसे अधिक हैं। अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके • अन्तरों और स्पर्द्धकोंके अन्तरोंकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि, [ संख्यातभागवृद्धि ], संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि सम्बन्धी स्थानोंके अन्तर व स्पद्धकोंके अन्तर अनन्तगुणे हैं। असंख्यातभागवृद्धिके भीतर अनन्तभागवृद्धियोंके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर असंख्यातवेंभाग अधिक हैं। संख्यातभागवृद्धिके भीतर अनन्तभागवृद्धियोंके स्थानान्तर और स्पर्द्धकान्तर संख्यातवें भाग अधिक हैं। संख्यातगुणवृद्धिके भीतर अनन्तभागवृद्धियों के स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर संख्यातगुणे अधिक हैं। असंख्यातगुणवृद्धिके भीतर १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-ताप्रतिषु 'कादूणछिद' इति पाठः। २ अप्रतौ 'फद्दयंतराणि' इत्येतत् पदं नास्ति । ३ अप्रतौ 'वड्डीहाणंतराणि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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