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________________ ४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१२७ अभंतरं अणंतभागवड्डोणं द्वाणंतर-फद्दयंतराणि [च ] असंखेजगुणब्भहियाणि । एवं सेसाणं पि हाणाणमंतरपरूवणा जाणिय' कायया ।। संपहि एत्थ चोदगोभणदि-सुहुमणिगोदअपजत्तजहण्णाणुभागट्ठाणादो हेहिमअणुभागबंधहाणाणं केवलाणं ण कदाचि वि कहिं वि जीवे संभवो अस्थि । तदो ण तेसिमशुभागहाणसण्णा । बंधं पडिहाणसण्णा होदि त्ति भणिदे–ण, तेण सरूवेण अणुवलंभमाणस्स सरिसधणिएसु एगोलीए हिदपरमाणुपोग्गलेसु च अंतब्भावं गयस्स अपत्तसंताणुभागहाणपमाणस्स अणुभागहाणत्तविरोहादो । तदो सुहुमणिगोदापज्जत्तजहण्णसंताणुभागद्वाणादो हेडिमअणुभागट्ठाणाणं परूवणा अणथिए ति ? ण एस दोसो, एदस्सेव जहण्णाणुभागहाणस्स सरूवपरूवणटुं तप्परूवणाकरणादो। ण तेहि अपरूविदेहि जहण्णहाणाणुभागपमाणं फद्दयपमाणं तत्थतणवग्गणपमाणं अंतरपमाणं च अवगम्मदे। तदो हेटिमबंधट्ठाणपरूवणा सफला इत्ति घेत्तव्वा । एवं सेसअसंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणं पि परूवणा कायव्वा। एवमंतरपरूवणा समत्ता। अनन्तभागवृद्धियोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर असंख्यातगुणे अधिक हैं। इसी प्रकार शेष स्थानोंके भी अन्तरोंकी प्ररूपणा जानकर करनी चाहिये। शंका-यहां शंकाकार कहता है, कि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके जघन्य अनुभागस्थानसे नीचेके अनुभागबन्धस्थान केवल कभी भी किसी भी जीवमें सम्भव नहीं हैं। इस कारण उनकी अनुभागस्थान संज्ञा संगत नहीं है। बन्धके प्रति स्थान संज्ञा हो सकती है, ऐसा कहनेपर कहते हैं कि वैसा भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, उस स्वरूपसे न पाये जानेवाले, समान धनवालों व एक पंक्ति रूपसे स्थित परमाणु पुदलोंमें अन्तर्भावको प्राप्त हुए, तथा सत्त्वानुभागस्थानके प्रमाणको न प्राप्त करनेव लेके अनुभागस्थान होनेका विरोध है। इस कारण सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके जघन्य अनुभागसत्त्वस्थानसे नीचेके अनुभागस्थानोंकी प्ररूपणा अनर्थक है ? समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इसी जघन्य अनुभागस्थानके स्वरूपकी प्ररूपणा करनेके लिये उक्त अनुभागस्थानोंकी प्ररूपणा की गई है । कारण कि उनकी प्ररूपणाके विना जघन्य अनुभागस्थानका प्रमाण, स्पद्धकोंका प्रमाण, उनकी वर्गणाओंका प्रमाण और अन्तरका प्रमाण नहीं जाना जा सकता है। अतएव उक्त नीचेके बन्धस्थानोंकी प्ररूपणा सफल है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकारसे शेष असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार अन्तरप्ररूपणा समाप्त हुई। १ श्रा-तप्रत्योः 'जाणिदूण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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