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________________ १२८] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ७, २०२. कंदयपरूवणदाए अत्थि अणंतभागपरिवडिकंदयं असंखेजुभागपरिवडिकंदयं संखेजभागपरिवडिकंदयं संखेजगुणपरिवडिकंदयं असंखेजगुणपरिवडिकंदयं अणंतगुणपरिवडिकंदयं ॥२०२॥ सुहुमणिगोदजहण्णसंतहाणप्पहुडि उवरिमेसु हाणेसु कंदयपरूवणा कीरदे । कुदो ? एदम्हादो अण्णस्स अक्खवगाणुभागसंतकम्मरस थोवीभूदस्स अभावादो । कुदो णबदे ? सव्वविसुद्धसंजमाहिमुहमिच्छाइहिस्स णाणावरणीयजहण्णाणुभागबंधो थोत्रो । सव्वविसुद्ध असण्णिणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो। सव्वविसुद्धचउरिंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो । एवं तेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो । बेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो । सविसुद्धबादरेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो। सव्वविसुद्धसुहुमेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो। तस्सेव हदसमुप्पत्तियं 'कादूणच्छिदणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । बादरेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । बेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । तेइंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । चउरिंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । असण्णिपंचिंदियणाणावरणजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । काण्डकप्ररूपणामें अनन्तभागवृद्धिकाण्डक, असंख्यातभागवृद्धिकाण्डक, संख्यातभागवृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक, असंख्यातगुणवृद्धिकाण्डक और अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक होते हैं । २०२॥ सूक्ष्म निगोद जीवके जघन्य सत्त्वाथानसे लेकर ऊपरके स्थानोंमें काण्डक प्ररूपणा की जाती है, क्योंकि, अक्षपकका इससे अल्प और कोई अनुभागसत्त्वस्थान नहीं है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके ज्ञानवरणीयका जघन्य अनुभागबन्ध स्तोक है। उससे सर्वविशुद्ध असंज्ञी [पंचेन्द्रिय के ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । उससे सर्वविशुद्ध चतुरिन्द्रियके ज्ञानावरणकाजघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। इस प्रकार त्रीन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध उससे अनन्तगुणा है। उससे द्वीन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । उससे सर्वविशुद्ध बादर एकेन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे सर्वविशुद्ध सूक्ष्म एकेन्द्रियके ज्ञानावरणका अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। हतसमुत्पत्ति करके स्थित हुए उसके ही ज्ञानावरणका जघन्य अनभागसत्त्व अनन्ताणा है। उससे बादर एकेन्द्रियके [ज्ञानावरणका 1 जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगणा है। उससे द्वीन्द्रियके ज्ञानावरण जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगणा है। उससे त्रीन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है। उससे चतुरिन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनभागसत्त्व अनन्तगणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रियके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्त्व १ प्रतिषु 'कादूट्टिद' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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