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________________ [ १२ ४, २, ७, २०२. ] वेणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया सणिपंचिदियसंजमा हिमुहमिच्छाइट्ठिणाणावरणीय जहण्णाणु भागसंतकम्ममर्णत गुणमिदि अणुभागप्पा बहुगादो | एकेकस्स गुणगारो असंखेज्जलोग मेत्त जीवरासीणं असंखेजलोगमेत्तअसंखेज लोगाणं असंखेज लोगमेत्तउक्कस्स ' संखेज्जाणं असंखेज्जलोगमेत्त अण्णोष्णव्भत्थरासीणं च गुणगारसरुवेण द्विदाणं संवग्गो । खीणसायचरिमसमए णाणावरणीय जहण्णाणुभागसंतकम्मं होदि त्ति सामित्तमुत्ते उत्तं । तदो पहुडि कंदयपरूवणा किण्ण कीरदे ? ण, तदो प्पहूडि कमेण छण्णं वड्डीणमभावादी । ण च कमेण णिरंतरं वड्डिविरहिदडाणेसु कंदयपरूपणा कादुं सकिजदे, विरोहादो । अविभागपरिच्छेदाणंतरपरूवणाओ किभिदि जहण्णबंधहाणपहुडि परुविदाओ ! ण एस दोसो, तेसिं तपहुडि परूवणाए कीरमाणाए वि दोसाभावादो । अधवा, सुवि सुमेइं दियजहण्णाणुभागसंतकम्मट्ठाणप्प हुडि उवरिमाणाणं परूवणा कायव्त्रा । कुदो ? माणं अणुभागबंधट्टाणाणं संतसरूवेण उवलंभाभावादो । एदं च सुद्दमणिगोदजहण्णाणुभागसंतद्वाणं बंधहाणेण सरिसं (कुदो एदं णव्वदे ! दस्सुवरि एगपक्खेवुत्तरं काढूण बंधे अणुभागस्स जहण्णिगा वड्डी, तम्मि चेव अंतो अनन्तगुणा है । उससे संयम के अभिमुख हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिके ज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इस अनुभग अल्पबहुत्वसे वह जाना जाता है । इनमें से एक एकका गुणकार असंख्यात लोक मात्र सब जीवराशियां, असंख्यात लोक मात्र असंख्यात लोक, असंख्यात लोक मात्र उत्कृष्ट संख्यात और असंख्यात लोक मात्र अन्योन्याभ्यस्त राशियां, इन गुणकार स्वरूपसे स्थित राशियोंका संवर्ग है । शंका-क्षीणकषायके अन्तिम समय में ज्ञानावरणीयका जघन्य अनुभागसत्त्व होता है, यह स्वामित्वसूत्र में कहा जा चुका है। उससे लेकर काण्डकप्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि उससे लेकर क्रमसे छह वृद्धियोंका अभाव है। और क्रमसे निरन्तर वृद्धिसे रहित स्थानोंमें काण्डकप्ररूपणा करना शक्य नहीं है, क्योंकि, उसमें विरोध है । शंका- फिर अविभागप्रतिच्छेदोंकी अन्तरप्ररूपणायें जघन्य बन्धस्थान से लेकर क्यों कही गई हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उससे लेकर उनकी प्ररूपणा के करनेमें भी कोई दोष नहीं हैं । अथवा, उनमें भी सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य अनुभाग सत्त्वस्थानसे लेकर ऊपर के स्थानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, अधरतन बन्धस्थान सत्ता रूप से उपलब्ध नहीं है । यह सूक्ष्मनिगोदका जघन्य अनुभागसत्त्वस्थान बन्धस्थानके सदृश है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- वह “इसके आगे एक प्रक्षेप अधिक करके बन्ध होनेपर अनुभागकी जघन्य १ श्राप्रतौ 'मेत्तउकस्साणं' इति पाठः । २ प्रतौ 'सवग्गो', श्रा--ता-मप्रतिषु 'सव्वग्गो' इति पाठः । छ. १२-१७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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