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________________ १३०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४,२,७, २०२ मुहुत्तेण खंडयघादेण धादिदे जहणिया हाणी होदि ति कसायपाहुडे परूविदत्तादो। बंधेण असरिसे सुहमणिगोदजहपणाणुभागहाणे संजादे एदाओ जहण्णव ड्डि-हाणीयो ण लभंति । कि कारणं ? बंधेण विणा वड्डीए अभावादो। घादहाणस्सुवरि एगपक्खेववड्डी किषण होदि त्ति भणिदे वुच्चदे-घादसंतहाणं णाम बंधसरिसअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चाले हेहिमउव्वंकादो अणंतगुणं उवरिमअहंकादो अणंतगुणहोणं होदूण चेहदि । एदस्सुवरि जदि वि सुट्ट जहण्णेण वड्डिदृण बंधदि तो वि उवरिमअटकसमाणबंधेण होदव्वं । तेण एत्थ अणंतगुणवड्डी चेव लब्भदि, णाणंतभागवड्डी । एत्थ जहण्णहाणी किण्ण घेप्पदे ? ण, जहण्णबंधहाणादो संखेजडाणाणि उवरि अब्भुस्सरिय हिदसंतट्ठाणस्स अणंतगुणहाणिं मोत्तण अर्णतभागहाणीए अभावादो। तेणेदं सुहुमणिगोदजहण्णहाणं संतट्ठाणं ण होदि, किं तु बंधहाणमिदि सिद्धं । होतं पि एदमणंतगुणवड्डीए चेव द्विदमिदि दट्टव्वं । एदमकमेव इत्ति कधं णव्वदे? उवरि हेद्वाहाणपरूवणाए' एगबहाणमस्सिदण हिदाए जहण्णहाणादो अणंतभागभहियं कंदयं गंतूण असंखेज्जभागवड्डियं हाणं होदि त्ति परूविदत्तादो णव्वदे जहा जहण्णाणमुव्वंकं ण होदि त्ति, उव्वंकम्हि संते सयलकंदयमेच वृद्धि तथा उसीका अन्तमुहुर्तमें काण्डकघातके द्वारा घात कर डालनेपर जघन्य हानि होती है" इस कषायप्राभृतकी प्ररूपणासे जाना जाता है। सूक्ष्म निगोदके जघन्य अनुभागस्थानके बन्धके सदृश होनेपर यह जघन्य वृद्धि और हानि नहीं पायी जा सकती है, कारण कि बन्धके विना वृद्धिकी सम्भावना नहीं है। शंका-घातस्थानके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि क्यों नहीं होती है ? समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि घात सत्त्वस्थान बन्धके सदृश अष्टांक और ऊवकके मध्यमें नीचेके ऊर्वंकसे अनन्तगुणा और ऊपरके अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होकर स्थित है। इसके ऊपर यद्यपि अतिशय जघन्य स्वरूपसे बढ़कर बांधता है तो भी ऊपरके अष्टक समान बाहिये। इस कारण यहां अनन्तगुणवृद्धि ही पायी जाती है, न कि अनन्तभागवृद्धि । . शंका-यहां जघन्य हानि क्यों नहीं ग्रहण की जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जघन्य बन्धस्थानसे संख्यात स्थान आगे हटकर स्थित सत्त्वस्थानकी अनन्तगुणहानिको छोड़कर अनन्तभागहानिका अभाव है। इसी कारण यह सूक्ष्म निगोदका जघन्य स्थान सत्त्वस्थान नहीं हैं, किन्तु बन्धस्थान ही है, यह सिद्ध है। बन्धस्थान होकर भी वह अनन्तगुणवृद्धिमें ही स्थित है, ऐसा जानना चाहिये। शंका-यह अष्टांक ही है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-एक षट्स्थानका आश्रय करके स्थित आगे की अधस्तनस्थानप्ररूपणामें "जघन्य स्थानसे अनन्तवें भागसे अधिक स्थानोंका काण्डक जाकर असंख्यातवें भागसे अधिक (असंख्यातभागवृद्धिका ) स्थान होता है" यह जो प्ररूपणाकी गई है उससे जाना जाता है कि जघन्य स्थान १ अ-आप्रत्योः 'हाणपरूपणा', ताप्रतौ 'हाणपरूवणा[ए]' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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