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________________ ४, २, १३, १७. ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [३८३ पमाणं पावदि । तत्थ एगखंडं णटुं। सेसबहुखंडाणि उक्कस्सखेत्तं कादूणच्छिद'महामच्छस्स उकस्सदव्वं होदि । पुणो एदम्हादो दव्वादो एंग-दोपरमाणुआदि कादूण ऊणियअसं. खेज्जभागहाणिपरूवणा ताव परूवेयव्वा जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्सदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडं परिहीणे त्ति । पुणो वि एगादिपरमाणुहाणि कादूण ताव णेयव्वं जाव ओघुक्कस्सदरमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदण तत्थ एगखंड णटुं ति । ताधे असंखेज्जभागहा. णीए अंतं' [होदण]संखज्जभागहाणीए च आदी जादा । एत्तो प्पहुडि संखेज्जभागहाणी चेवहोदण गच्छदि जाव रूवाहियमुक्कस्सदव्वस्स अद्धं चेट्ठिदं ति । पुणो तत्तो एगपरमाणुहाणीए जादाए दुगुणहाणी होदि । संपहि संखेज्जगुणहाणीए आदी जादा। पुणो उक्कस्सदव्वं तिण्णि खंडाणि कादूण तत्थ एगखंडेण सह उकस्सखेत्ते कदे दव्वं संखेज्जगुणहीणं होदि । पुणो उक्कस्सदव्वं चत्तारि खंडाणि कादण तत्थ एगखंडेण सह उक्कस्स. खेत्ते कदे दव्वं संखेज्जगुणहीणमेव होदि । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सदव्वं उक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ एपखंडेण सह उक्कस्सखेत्तं कादूण विदो त्ति । पुणो वि उवरि एवं जाणिदण णेयव्वं जाव उक्कस्सदव्वं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदण तत्थ एगखंडं रूवाहियं चेद्विदं ति । पुणो तमेगपरमाणुणा ऊणं करिय उक्कस्सखेत्ते कदे असंखे समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति नष्ट द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। उसमेंसे वहाँ एक खण्डनष्ट हुआ है, शेष बहुखण्ड प्रमाण उत्कृष्ट क्षेत्रको करके स्थित महामत्स्यका उत्कृष्ट द्रव्य होता है। पुनः इस द्रव्यमेंसे एक दो परमाणुओं लेकर हीन करते हुए असंख्यातभागहानिकी प्ररूपणा तब तक करनी चाहिये जब तक कि उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करनेपर .उसमेंसे एक खण्ड हीन नहीं हो जाता है। फिर भी एक आदिक परमाणुओंकी हानिको करके तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि ओघ उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण नष्ट नहीं हो जाता है। उस समय असंख्यातभागहानिका अन्त होकर संख्यातभागहानिका प्रारम्भ होता है। ___ यहांसे लेकर संख्यातभागहानि ही होकर जाती है जब तक कि उत्कृष्ट द्रव्यका एक अधिक आधा भाग स्थित रहता है । फिर उसमेंसे एक परमाणुकी हानि होनेपर दुगुणहानि होती है। अब संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ हो जाता है। पुनः उत्कृष्ट द्रव्यके तीन खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डके साथ उत्कृष्ट क्षेत्रके करनेपर द्रव्य संख्यातगुणा हीन होता है । पुनः उत्कृष्ट द्रव्यके चार खण्ड करके उसमेंसे एक खण्डके साथ उत्कृष्ट क्षेत्रके करनेपर द्रव्य संख्यातगुणा हीन ही होता है । इस प्रकारसे उत्कृष्ट द्रव्यके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्ड करके उनमसे एक खण्डके साथ उत्कृष्ट क्षेत्रको क स्थित होने तक ले जाना चाहिये। फिर भी आगे इसी प्रकारसे जानकर उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके उसमें से एक अधिक एक खण्डके स्थित होने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्च त् उसे एक परमाणुसे हीन करके उत्कृष्ट क्षेत्रके करनेपर असंख्यातगुणहानि होती है। १ अश्रा काप्रतिषु 'अच्छिदं इति. पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अणंत' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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