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वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे पदमीमांसा बारस पण दस पण दस पंचेक्कारस य सत्त सत्त णवं ।
दुविहणयगहणलीणा पुच्छासुत्तंकसंदिट्ठी ॥१॥) बारह, पाँच, दस, पाँच, दस, पाँच स्थानोंमें ग्यारह, सात, सात और नौ, इस प्रकार दोनों नयोंकी अपेक्षा यह पृच्छासूत्रोंके अंकोंकी संदृष्टि है ॥ १॥
विशेषार्थ-वेदना भावविधानका यहाँ मुख्यतया तीन अधिकारोंके द्वारा कथन किया गया है। वे तीन अनुयोगद्वार ये हैं--पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उत्कृष्ट आदि पदोंके द्वारा वेदनाभाव विधानके विचारका नाम पदमीमांसा है। यहाँ सूत्र में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य
और अजघन्य इन चार पदोंका ही निर्देश किया है किन्तु वीरसेन स्वामीने इनसे सूचित होनेवाले नौ पद और गिनाए हैं। ये कुल तेरह पद हैं। उसमें भी इनमेंसे एक-एक पदके आश्रयसे शेष पदोंका विचार करने पर कुल १६९ पद होते हैं। यहाँ ज्ञानावरणीय भाववेदनाका विचार प्रस्तुत है। इस अपेक्षासे कुल संयोगी पद कितने होते हैं इसका कोष्ठक आगे देते हैं--
उत्कृ. अनु. जघ. अज. सादि. अना. ध्रुव अध्रु. प्रोज. युग्म. अोम | विशि. नोम.
उत्कृ.
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श्रोम
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विशि.
यहाँ ओज पद क्यों सम्भव नहीं हैं इस बातका विचार टीकामें किया ही है तथा शेष पद प्रत्येक और संयोगी कैसे घटित होते हैं यह बात भी टीकामें विस्तारसे बतलाई है।
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