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________________ [ १२ छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, २, ७, ६,] एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५ ॥ जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा सत्तण्णं कम्माणं परूवेदव्वं । एवं पदमीमांसा त्ति अणियोगद्दारं सगंतोक्खित्तओजाहियारं समत्तं । सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्सपदे ॥ ६ ॥ एत्थ 'पद'सद्दो ढाण8 दट्टव्वो। जहण्णपदे एगं सामित्तं विदियं उक्कस्सपदे एवं सामित्तं दुविहं । अजहण्ण-अणुक्कस्सपदसामित्तेहि सह चउविहं किण्ण भण्णदे ? ण, एत्थेव तेसिमंतभावादो। तं जहा–उक्कस्सं दुविहं, ओघुक्कस्समादेसुक्कस्सं चेदि । तत्थ संगहिदासेसवियप्पमोघुकस्सं । अप्पिदवियप्पादो अहियमादेसुक्कस्सं ।[अणुक्कस्सं] आदेसु कस्समिदि एयट्ठो। तेण'उक्कस्सं'इदि उत्ते एदेसिं दोण्णमुक्कस्साणं गहणं । जहण्णं पि दुविहं, ओघजहण्णमादेसजहण्णमिदि। जत्तो हेट्ठा अण्णो वियप्पोणत्थि तमोघजहण्णं । अप्पिदादो एगवियप्पादिणा परिहीणमादेसजहण्णं । तत्थ 'जहण्णपदं' इदि वुत्ते एदेसिं दोण्णं पि जहण्णाणं गहणं कायव्वं । तेण सामित्तं दुविहं चेव ण चउन्विहं । जत्थ जत्थ दुविहं सामित्तमिदि भणिदं मणिहिदि तत्थ तत्थ एवं चेव दुविहभावसमत्थणा कायव्वा । इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषयमें पदप्ररूपणा करनी चाहिये ॥ ५ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके पदोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोके पदोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार ओज अधिकारगर्भित पदमीमांसा नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य पद विषयक और उत्कृष्ट पद विषयक ॥६॥ यहाँ पर पद शब्दका अर्थ स्थान समझना चाहिये । एक स्वामित्व जघन्य पदमें होता है और दूसरा स्वामित्व उत्कृष्ट पदमें होता है इस तरह स्वामित्व दो प्रकारका होता है। शंका--अजघन्य आर अनुत्कृष्ट पद विषयक स्वामित्वके साथ स्वामित्व चार प्रकारका क्यों नहीं कहा ? ___समाधान नहीं, क्योंकि, इन्हीं दोनोमें उनका अन्तर्भाव हो जाता है। यथा--उत्कृष्ट स्वामित्व दो प्रकारका है-ओघ उत्कृष्ट और आदेश उत्कृष्ट । उनमेंसे समस्त विकल्पोंका संग्रह करनेवाला ओघ उत्कृष्ट स्वामित्व है और विवक्षित विकल्पसे अधिक आदेश उत्कृष्ट स्वामित्व है। अनुत्कृष्ट और आदेश उत्कृष्ट इन दोनोंका एक ही अर्थ है, इसी कारण 'उत्कृष्ट' ऐसा कहनेपर इन दोनों उत्कृष्टोंका ग्रहण हो जाता है। जघन्य भी दो प्रकारका है-ओघ 'जघन्य और आदेश' जघन्य । जिसके नीचे और कोई दूसरा विकल्प नहीं रहता वह ओघ जघन्य स्वामित्व है तथा विवक्षित विकल्पसे एक विकल्प आदिसे हीन आदेश जघन्य स्वामित्व है। उनमेंसे 'जघन्यपद' ऐसा कहनेपर इन दोनों ही जघन्योंका ग्रहण करना चाहिये। इसलिए स्वामित्व दो प्रकारका ही है, चार प्रकारका नहीं इसलिए जहाँजहाँ स्वामित्व दो प्रकारका कहा गया है या कहा जावेगा वहाँ-वहाँ इसी प्रकार दो भेदोंका समर्थन करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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