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________________ [ ४, २, ७, ७. dr महाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं १३ ] सामित्तेण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा भावदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥ ६ ॥ 'सामित्तण' इत्ति कधमेत्थ तइया ? ण एस दोसो; लक्खणे वि तइयाविहत्तिविहाणादो | 'उक्कस्सपद' णिद्देसेण जहण्णपदपडिसेहो कदो । सेसकम्मपडिसेहट्टं 'णाणावरणी' णिसो को | दव्वादिपडिसे हफलो 'भाव' णिद्देसो । 'कस्स' इत्ति वुत्ते किं णेरइयस्स तिरिक्खस्स मणुस्सस्स देवस्स एइंदियस्स बीइंदियस्स तीइंदियस्स चउरिंदियस्स वात्ति पुच्छा कदा होदि आसंका वा । अण्णदरेण पंचिदिएण सण्णिमिच्छाइट्टिणा सव्वाहि पत्तीहि पजुत्तगदेण सागारुवजोगेण जागारेण णियमा उक्क्स्ससंकिलिट्टेण बंधल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि ॥ ७ ॥ एवं सुतमुकस्साणुभागं बंधंतयस्स लक्खणं परुवेदि । विगलिंदिया उक्कस्साभागं ण बंधंति पंचिंदिया चेव बंधंति त्ति जाणावणङ्कं 'पंचिदिएण' इत्ति भणिदं । वेदोगाणा-गदिवि से साभावपदुप्पायणङ्कं ' 'अण्णदरेण' इत्ति भणिदं । असणिपडिसेह स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट पदमें भावसे ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट वेदना किसके होती है ? ॥ ६ ॥ शंका--' सामित्तेण' इस प्रकार यहाँ तृतीया विभक्ति कैसे सम्भव है ? समाधान --- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, लक्षणमें भी तृतीया विभक्तिका विधान किया जाता है । सूत्र में उत्कष्ट पदके निर्देश द्वारा जघन्य पदका प्रतिषेध किया है। शेष कर्मोंका प्रतिषेध करने के लिये ज्ञानावरणीय पदका निर्देश किया है। भाव पदके निर्देशका फल द्रव्यादिका प्रतिषेध करना है । 'किसके होती है' ऐसा कहनेपर 'क्या नारकीके, तिर्यंचके, मनुष्यके, देवके, एकन्द्रियके, द्वीन्द्रियके, त्रीन्द्रियके अथवा चतुरिन्द्रियके होती है' ऐसी पृच्छा अथवा आशंका प्रगट की गई है । 1 अन्यतर पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिध्यादृष्टि, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त, साकार उपयोग युक्त, जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त जिस जीवके द्वारा बन्ध होता है और जिस जीवके इसका सत्व होता है ॥ ७ ॥ यह सूत्र उत्कृष्ट अनुभागको बांधनेवाले जीवका लक्षण बतलाता है । विकलेन्द्रिय उत्कृष्ट अनुभागको नहीं बांधते हैं, किन्तु पचेन्द्रिय ही बांधते हैं; इस बातके ज्ञापनार्थ सूत्रमें पंचेन्द्रिय पदका निर्देश किया है । वेद, अवगाहना एवं गति आदिकी विशेषताका अभाव बतलाने के लिये १ 'सागर आगार णिमा' इति पाठः । २ प्रतौ 'विसे साभव' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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