SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, ७, १६६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१७ भावादो । कम्मपरमाणूणं पि खंडभावेण द्विदाणमेगत्तमस्थि ति समाणधणाणं' पि गहणं किण्ण कीरदे ? ण, दव्वभावेण एयत्ताभावादो। भावे वा ण भेदो होज, एयत्तादो जीवागास-धम्मत्थियादीणं व । अण्णं च, फद्दयपरूवणा. एगोलिं चेव अस्सिदूण हिदा, अण्णहा जोगहाणे फद्दयाणमभावप्पसंगादो। ण च एवं, जोगहाणे सुत्तप्पसिद्धफद्दयपरूवणुवलंभादो। ण च एवं घेप्पमाणे अणंताहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि त्ति एवं विरुज्झदे, एकस्स वि वग्गस्स दवहियणयादो वग्गणत्तसिद्धीदो। भिण्णदव्वहिदो त्ति अणुभागस्स जदि ण एयत्तं वुच्चदे, ण एगोली वि फद्दयं, भिण्णदव्वउत्तीए भेदाभावादो? ण एस दोसो, कमेण एगोलीए वहिदसव्वाविभागपडिच्छेदाणमेकम्हि परमाणुम्हि उवलंभादो। ण च भिण्णदव्वउत्तिअविभागपडिच्छेदाणं फद्दयत्तं, तेसिं चरिमपरिमाणुम्हि संताणं गहणे पुणरुत्तदोसप्पसंगादो भिण्णदव्वउत्तीणमेयत्तविरोहादो वा। जदि एवं तो एगणाणोलीपदेसरचणा किमहं कीरदे ? ण, एदस्सेव अणुभागफद्दयस्स शंका-खण्ड स्वरूपसे स्थित कर्मपरमाणुओंमें चूंकि एकरूपता विद्यमान है, अतएव समान धनवाले उनका भी ग्रहण क्यों नहीं करते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनमें द्रव्य स्वरूपसे एकता नहीं है। यदि उनमें द्रव्य स्वरूपसे एकता मानी जाय तो फिर भेद होना अशक्य है, क्योंकि, उनमें द्रव्य स्वरूपसे एकता है, जैसे जीव आकाश व धर्म अस्तिकाय । दूसरे, स्पर्द्धकप्ररूपणा एक श्रेणिका ही आश्रय करके स्थित है, क्योंकि, इसके बिना योगस्थानमें स्पर्द्धकोंके अभावका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, योगस्थानमें सूत्रप्रसिद्ध स्पर्द्धकप्ररूपणा पायी जाती है। यदि कहा जाय कि ऐसा स्वीकार करनेपर 'अनन्त वर्गणाओंसे एक स्पद्धक होता है' यह कथन विरोधको प्राप्त होगा, क्योंकि एक वर्गके भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा वर्गणात्व सिद्ध है। शंका-भिन्न द्रव्य में रहनेके कारण यदि अनुभागकी एकता स्वीकार नहीं की जाती है तो फिर एक श्रेणिको भी स्पर्द्धक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, भिन्नद्रव्यवृत्तित्वकी अपेक्षा उसमें कोई भेद नहीं है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, क्रमशः एक श्रेणिरूपसे अवस्थित समस्त अविभागप्रतिच्छेद एक परमाणुमें पाये जाते है। भिन्न द्रव्यमें रहनेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंके त्पर्द्धकरूपता सम्भव भी नहीं है, क्योंकि, अन्तिम परमाणुमें रहनेवाले उक्त अविभागप्रतिच्छेदोंको ग्रहण करनेपर पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है, अथवा भिन्न द्रव्यमें रहनेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंके एक होनेका विरोध है । शंका-यदि ऐसा है तो एक व नानाश्रेणि स्वरूपसे प्रदेशरचना किसलिये की जाती है ? १ अ-अाप्रत्योः 'समाणधाणाणं' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'वड्डिद-' इति पाठः । छ, १२-१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy