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ariडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ७, १२.
भागट्टाणपरूवणं भणिहिदि एत्थ वि तप्परूवणे कीरमाणे पुणरुत्तदोसो होदि ति तदकरणादो ।
एवं दंसणावरणीय मोहणीय अंतराइयाणं ॥ १० ॥
जहा णाणावरणीय अणुभागस्स उक्कस्साकस्सपरूवणा कदा तहा सेसाणं तिष्णं घादिकम्माणमुकस्साकस्स अणुभाग परूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो ।
सामित्तेण उकस्सपदे वेयणीयवेयणा 'भावदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥। ११ ॥
सुगममेदं ।
अण्णदरेण खवगेण सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजदेण चरिमसमयबद्धल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि ॥ १२ ॥
वेदोगाहणादिविसेसाभावपदुप्पायणङ्कं 'अण्णदरेण' इति भणिदं । अक्खवगपडिसेह 'खवगेण' इति णिङ्किं । 'मुहुमसां पराइय सुद्धिसंजदेण' इति णिद्देसो से सखवगपडिसेहफलो | दुरिमादिसमएस बद्धाणुभागपडिसेहवं 'चरिमसमयबद्धल्लयं 'ति भणिदं । एदेण सुत्तेण चरिमसमय सुहुमसांपराइय सुद्धिसंजदो उकस्साणुभागसामी होदित्ति जाणाविदं । भी यहाँ उनका कथन करनेपर चूँकि पुनरुक्त दोष होता है, अतः उनका कथन नहीं किया है । इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायके विषय में प्ररूपण करनी चाहिये ।। १० ।।
जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके स्वामीको प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष तीन घातियाँ कर्मोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है ।
स्वामित्व से उत्कृष्ट पदमें वेदनीयवेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ ११ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत जिस जीवके द्वारा अन्तिम समय में बन्ध होता है और जिस जीवके इसका सत्व होता है ॥ १२ ॥
वेद व अवगाहना आदिकी कोई विशेषता विवक्षित नहीं है यह बतलानेके लिये सूत्र में 'अन्यतर' पद कहा है । अक्षपकका प्रतिषेध करनेके लिये 'क्षपक' पदका निर्देश किया है। 'सूक्ष्मसाम्पराकिशुद्धिसंयत' के निर्देशका प्रयोजन शेष क्षपकोंका प्रतिषेध करना है । द्विचरम था दक समयों में बांधे गये अनुभागका प्रतिषेध करनेके लिये 'चरिम समय में बाँधा गया' ऐसा कहा है। इस सूत्र के द्वारा अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है, यह १ प्रतिषु 'भावादो' इति पाठः ।
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