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________________ [४, २, ७, ६. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं वा पजत्तस्स वा अपज्जत्तस्स वा अण्णदरस्स जीवस्स अण्णदवियाए गदीए वट्टमाणयस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो उक्कस्सा ॥ ८ ॥ तं संतकम्मं होदूण एइंदियादिएसु अपजत्तवसाणेसु लब्भदि । कधमण्णत्थ बद्धस्स उक्कस्साणुभागस्स अण्णत्थ संभवो ? ण एस दोसो; उक्कस्साणु मागं बंधिदूण तस्स कंडयधादमकाऊण अंतोमुहुत्तेण कालेण एइंदियादिसु उप्पण्णाणं जीवाणं उकस्साणुभागसंतोक्लंभादो। एवमेदेसु अवत्थाविसेसेसु वट्टमाणस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो उक्कस्सा होदि ति घेत्तव्वं । एत्थ उपसंहारो किमिदि ण वुच्चदे ? ण एस दोसो; ठाणफद्दय-वग्गणाविभागपडिच्छेदेसु अणिवुणस्स अंतेवासिस्स उवसंघारे' भण्णमाणे वामोहो मा होहिदि' त्ति कट्ट तप्परूवणाए अकरणादो। तव्वदिरित्तमणुकस्सा ॥ ६ ॥ तत्तो उक्कस्साणुभागादो वदिरित्तं तव्वदिरितं, सा अणुक्कस्सा भाववेयणा । एत्थ अणुक्कस्सट्ठाणाणं पुध पुध परूवणा किण्ण कीरदे ? ण, उवरिमअणुभागचूलियाए अणु पर्याप्त, अथवा अपर्याप्त अन्यतर जीवके अन्यतम गतिमें विद्यमान होनेपर होता है; अतएव उक्त जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥८॥ वह सत्कर्म सूत्रमें कही गई एकेन्द्रियसे लेकर अपर्याप्त अवस्थातक सब अवस्थाविशेषों में पाया जाता है। शङ्का-अन्यत्र बांधे गये उत्कृष्ट अनुभागकी दूसरी जगह सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर उसका काण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर एकेन्द्रियादिकोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व पाया जाता है। इसप्रकार इन अवस्थाविशेषोंमें वर्तमान जीवके ज्ञानावरणीयवेदना भावले उत्कृष्ट होती है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । शङ्का-यहाँ उपसंहारका कथन क्यों नहीं करते ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो शिष्य स्थान, स्पर्धक, वर्गणा और अविभागप्रतिच्छेदके विषयमें निपुण नहीं है उसे उपसंहारका कथन करनेपर व्यामोह न हो; इस कारण यहाँ उपसंहारका कथन नहीं किया है। उससे भिन्न अनुत्कृष्ट भाव वेदना होती है ॥ ॥ उससे अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागसे भिन्न जो वेदना है वह तद्वयतिरिक्त कहलाती है और वह अनुत्कृष्ट भाववेदना है। . शङ्का-यहाँ अनुत्कृष्ट स्थानोंकी पृथक् पृथक् प्ररूपणा क्यों नहीं करते ? समाधान नहीं, क्योंकि, आगे अनुभागचूलिकामें अनुभागस्थानोंका कथन करेंगे ही फिर १ अप्रतौ 'उवसंघादे' इति पाठः । २ प्रतिषु 'होहदि' इति पाठः । ३ अप्रतौ 'भागोदो' इति याठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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