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________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [२६९ चारेण जहण्णसण्णा । तस्स हाणाणि जहण्णाणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि । तत्थ फोसणकालो असंखेज्जगुणो। कुदो ? असंखेज्जवारं चदुसमयपाओग्गट्ठाणेसु परिभमिय सई विसमयपाओग्गट्टाणाणं गमणादो। कंदयस्स फोसणकालो तत्तियो चेव ॥ २६५ ॥ पुव्वं परूविदस्सेव किमहं परूवणा कीरदे, परूविदपरूवणाए फलाभावादो ? ण एस दोसो, जहण्णाणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणे त्ति वयणादो उप्पण्णसंसयस्स सीसस्स संदेहणिवारणहं तदुप्पत्तीदो। जवमज्झफोसणकालो असंखेजगुणो ॥ २६६ ॥ [८] जवमझे त्ति भणिदे अट्ठसमयपाओग्गसव्वहाणाणं गहणं । तेसिमदीदकाले एगजीवेण फोसिदकालो असंखेज्जगुणो। कुदो ? मज्झिमपरिणामेहि जवमझट्ठाणेसु असंखेज्जवारं परिभमिय सई चदुसमयपाओग्गट्ठाणाणं गमणसंभवादो। कंदयस्स उवरि फोसणकालो असंखेजगुणो ॥२६७॥ [३।२] कुदो ? अट्ठसमयपाओग्गट्टाणेहिंतो तिसमय-विसमयपाओग्गट्ठाणाणमसंखेज्ज. गुणत्तादो। है । उसके स्थान जघन्य अनुभागस्थान कहे जाते हैं। उनमें रहनेका काल असंख्यातगुणा है, क्योंकि, असंख्यातबार चार समय योग्य स्थानों में परिभ्रमण करके एक बार दो समय योग्य स्थानोंको प्राप्त होता है। काण्डकका स्पर्शनकाल उतना ही है ॥ २९५ ॥ शंका-पहिले जिसकी प्ररूपणा की जा चुकी है उसीकी फिरसे प्ररूपणा किसलिये की जा रही है, क्योंकि, प्ररूपितकी प्ररूपणा करने में कोई लाभ नहीं है ? । समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान इस कथन से उत्पन्न हुए सन्देहसे युक्त शिष्यके उस सन्देहको दूर करनेके लिये प्ररूपितकी भी प्ररूपणा बन जाती है। उससे यवमध्यका स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है ।। २९६ ॥ [८] यवमध्य ऐसा कहनेपर आठ समय योग्य सब स्थानोंको ग्रहण करना चाहिये। अतीत कालमें एक जीवके द्वारा उनका स्पर्शनकाल असंख्यातगणा है। कारण यह है कि मध्यम परिणामों के द्वारा यवमध्यस्थानों में असंख्यात वार परिभ्रमण करके एक बार चार समय योग्य स्थानोंमें जाना सम्भव है उससे काण्डकके ऊपर स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है ॥ २६७ ॥ [२] इसका कारण यह है कि पाठ समय योग्य स्थानोंकी अपेक्षा तीन समय व दो समय योग्य स्थान असंख्यातगणे पाये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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