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________________ ४, २, ७, १२६.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं पुब्विल्लहितो पच्छा देसघादित्तमुववण्णत्तादो णव्वदे। सुदणाणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च तिण्णि वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि ॥ १२५ ॥ कुदो ? पयडिविसेसादो । कुदो सो णव्वदे ? पच्छा देसघादिबंधजोगादो। चक्खुदंसणावरणीयमणंतगुणं ॥ १२६ ॥ कारणं सुगमं । आभिणिबोहियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणाणि ॥ १२७॥ सुगम। विरियंतराइयमणंतगुणं ॥ १२८ ॥ एदं पि सुगमं । पुरिसवेदो अणंतगुणो ॥ १२६ ॥ विरियंतराइयस्स अणुभागो देसघादी एगट्टाणियो, पुरिसवेदस्स वि अणुभागो कि "जिन प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध पूर्वमें देशघाती हो जाता है उनका अनुभाग स्तोक होता है, तथा जिनका अनुभागबन्ध पीछे देशघाती होता है उनका अनुभाग बहुत होता है।" उसीसे वह जाना जाता है। .. श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय ये तीनों ही प्रकृतियां तुल्य होकर उनसे अनन्तगुणी हैं ॥ १२५ ॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। शंका-वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - चूंकि इन प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध पीछे देशघातित्वको प्राप्त होता है अतः इसीसे उसका निश्चय हो जाता है। उनसे चक्षुदर्शनावरणीय अनन्तगुणी है ॥१२६ ॥ इसका कारण सुगम है। उससे आमिनिबोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय ये दोनों ही प्रकृतियां तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥ १२७ ॥ . यह सूत्र सुगम है। उनसे वीर्यान्तराय अनन्तगणा है ॥ १२८ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उससे पुरुषवेद अनन्तगुणा है॥ १२६ ॥ वीर्यान्तरायका अनुभाग देशघाती एकस्थानीय है तथा पुरुषवेदका भी अनुभाग स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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