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________________ ६८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, १३० एरिसो चेव । किं तु अंतोमुहत्तं हेट्ठा ओदरिय बद्धो तेण अणंतगुणहीणो जादो। हस्समणतगुणं ॥ १३०॥ अपुव्यकरणचरिमसमयसव्वघादिविट्ठाणियजहपणाणुभागबंधग्गहणादो। रदी अणंतगुणा ॥ १३१ ॥ तप्पुरंगमत्तादो। दुगुंछा अणंतगुणा ॥ १३२ ॥ दोण्णं पयडीणं अपुव्वकरणचरिमसमए चेव जदि वि जहपणबंधो जादो तो वि रदीदो दुगुंछा अणंतगुणा, पयडिविसेसमस्सिदूण संसारावस्थाए सव्वत्थ तहावट्ठाणादो। भयमणंतगुणं ॥ १३३ ॥ पयडिविसेसेण । सोगो अणंतगुणो ॥ १३४ ॥ कुदो ? अपुव्यकरणविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिणा पमत्तसंजदेण बद्धजहण्णाणुभागग्गहणादो। अरदी अणंतगुणा ॥ १३५ ॥ प्रकारका है । परन्तु वह चूंकि अन्तर्मुहूर्त पीछे जा कर बांधा गया है अतः वह अनन्तगुणा हीन है। उससे हास्य अनन्तगुणा है ॥ १३० ॥ कारण कि यहाँ अपूर्वकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी सर्वघाती द्विस्थानीय जघन्य अनुभागबन्धका ग्रहण किया गया है। उससे रति अनन्तगुणी है ॥ १३१ ॥ कारण कि वह हास्यपूर्वक होती है। उससे जुगुप्सा अनन्तगुणी है।। १३२ ॥ यद्यपि रति और जुगुप्सा इन दोनों प्रकृतियोंका अपूर्वकरणके अन्तिम समय में ही जघन्य बन्ध हो जाता है तो भी रतिकी अपेक्षा जुगुप्सा अनन्तगुणी है, क्योंकि, प्रकृतिविशेषका आश्रय करके संसार अवस्थामें सर्वत्र इसी प्रकार की स्थिति है। उससे भय अनन्तगुणा है ॥ १३३॥ इसका कारण प्रकृतिविशेष है। . उससे शोक अनन्तगुणा है ।। १३४ ॥ कारण यह है कि अपूर्वकरणकी विशुद्धिकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन विशुद्धिवाले प्रमत्त संयतके द्वारा बांधे गये जघन्य अनुभागका यहाँ ग्रहण किया है। . उससे अरति अनन्तगुणी है ॥ १३५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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