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________________ वेयणप्रणंतरविहाणाणियोगहारं [ ३७३ परंपरबंधा ॥ ७॥ एत्थ वि पुवं व दोहि पयारेहि अत्थपरूवणा कायव्वा । तदुभयबंधा णत्थि । कुदो ? एदासु चेव तिस्से अंतब्भावादो। एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥८॥ जहा णाणावरणीयस्स संगहणयमस्सिदृण दोहि पयारेहि अत्थपरूवणा कदा तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परूवणा कायव्वा । उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा परंपरबंधा ॥६॥ अणंतरबंधा णस्थि णाणावरणीयवेयणा, परंपरबंधा चेव । कुदो ? उदयमागदकम्मक्खंधादो चेव अण्णाणभावुवलंभादो । विदियत्थे अवलंबिज्जमाणे कधमेत्थ परूवणा कीरदे ? वुच्चदे-एत्थ वि गाणावरणीयवेयणा परंपरबंधा चेव जीवदुवारेणेव सव्वेसिं कम्मक्खंधाणं बंधुवलंभादो। जीवदुवारेण विणा कम्मक्खंधाणमण्णोण्णेहि बंधो उवलंभदि ति चे ? ण, तस्स वि अण्णोण्णबंधस्त जीवादो चेव समुप्पत्तिदंसणादो। कम्मइयवग्गणावत्थाए वि एसो अण्णोण्णबंधो उवलब्भदि ति चे ? ण, एदस्स विसिट्ठस्स बंधस्स अणंताणंतेहि कम्मइयवग्गणक्खंधेहि णिप्फण्णस्स जीवादो चेव समुप्पत्तिदंसणादो । ण च वह परम्पराबन्ध भी है ॥ ७॥ यहाँ भी पहिलेके ही समान दो प्रकार से अर्थकी प्ररूपणा करनी चाहिये। वह तदुभयबन्ध नहीं है, क्योंकि, इन दोनों में ही उसका अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषयमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥८॥ जिस प्रकार ज्ञानावरण कर्मकी संग्रहनयकी अपेक्षा दो प्रकारसे प्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना परम्पराबन्ध है ॥४॥ [ इस नयकी अपेक्षा ] ज्ञानावरणीयवेदना अनन्तरबन्ध नहीं है, परम्पराबन्ध ही है; क्योंकि, उदयमें आये हुए कर्मस्कन्धों से ही अज्ञानभाव पाया जाता है। शंका-द्वितीय अथका अवलम्बन करनेपर यहाँ कैसे प्ररूपणा की जाती है ? समाधान-इस शंकाका उत्तर कहते हैं, द्वितीय अर्थका अवलम्बन करने पर भी ज्ञानावरणीयवेदना परम्पराबन्ध ही है,क्योंकि, जीवके द्वारा ही सब कर्मस्कन्धोंका बन्ध पाया जाता है। शंका-जीवका आलम्बन लिये बिना भी कमंस्कन्धोंका परस्पर बन्ध पाया जाता है? समाधान-नहीं, क्योंकि, उस परस्परबन्धकी भी उत्पत्ति जीवसे ही देखी जाती है। शंका-यह परस्परबन्ध कार्मण वर्गणाकी अवस्थामें भी पाया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, अनन्तानन्त कार्मण वर्गणा रूप स्कन्धोंसे उत्पन्न इस विशिष्ट बन्धकी उत्पत्ति जीवसे ही देखी जाती है। अनन्तरबन्ध वेदना उदीर्ण होकर फलको प्राप्त हुए १ अ-श्रा-काप्रनिषु 'वेयणादो', ताप्रतौ 'वेयणा [ दो ]' इत्ति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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