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________________ ३७४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १२, १०. अणंतरबंधा उदिण्णफलपत्त विवागा, परंपरबद्धोए उदिण्णफलपत्तविवागत्तुवलंभादो । ण च समुदयकज्जमेकस्स होदि, विरोहादो । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ १० ॥ सुगममेदं । सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥११॥ तिण्णं सद्दणयाणं विसए दव्वाभावादो, अणंतरबंधा-परंपरबंधा-तदुभयबंधा सद्दाणं पुधभूदअत्थपरूवयाणं' ण सद्ददो अत्थदो य समासाभावादो वा। एवं वेयणअणंतरविहाणे ति समत्तमणियोगद्दारं । विपाकवाली नहीं है, क्योंकि, परम्पराबद्ध वेदनामें ही उदीर्णफलप्राप्तविपाक पाया जाता है। और समुदायके द्वारा किया गया कार्य एकका नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें विरोध है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के सम्बन्धमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ १० ॥ यह सूत्र सुगम है। शब्द नयकी अपेक्षा वह अवक्तव्य है।॥ ११ ॥ कारण कि एक तो तीनों शब्द नयोंका विषय द्रव्य नहीं है। दूसरे अनन्तरबन्ध, परम्पराबन्ध और तदुभयबन्ध ये शब्द पृथक् पृथक् अर्थके वाचक होने से इनका शब्द और अर्थकी अपेक्षा समास नहीं हो सकता इसलिए वह इस नयकी अपेक्षा अवक्तव्य है इस प्रकार वेदनाअनन्तरविधान अनुयोगाद्वार समाप्त हुआ। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अत्थपरूवाणं', ताप्रतौ 'परूवणं ण ( याणं) इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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