SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १२, ५. ति एदेसिं' सुत्ताणं ण एसो अत्थो ति एवमेदेसिमत्थपरूवणा कायव्वा । तं जहाणोणावरणीयकम्मक्खंधा अणंताणता णिरंतरमण्णोण्णेहि संबद्धा' होदुण जे द्विदा ते अणंतरबंधा णाम । एदेण एगादिपरमाणूणं संबंधविरहियाणं णाणावरणभावो पडिसिद्धो दहव्वो। अणंतरबंधाणं चेव णाणावरणीयभावे संपत्ते परंपरबंधा वि णाणावरणीयवेयणा होदि त्ति जाणावणटुं विदियसुत्तं परविदं । अणंताणंता कम्मपोग्गलक्खंधा अण्णोणसंबद्धा होदण सेसकम्मक्खंधेहिं असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम । एदे वि णाणावरणीयवेयणा होति त्ति भणिदं होदि । एदेण सव्वे णाणावरणीयकम्मपोग्गलखंधा एगजीवाहारा अण्णोण्णं समवेदा चेव होदण णाणावरणीयवेयणा होति ति एसो एयंतो णिरागरियो त्ति दव्यो । सेसं सुगम । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ५ ॥ जहा णाणावरणीयस्स दोहि पयारेहि परंपराणंतर-तदुभयबंधाणं परूवणा कदा तहा सेससत्तण्णं कम्माणं परूवणा कायव्वा । संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा अणंतरबंधा ॥६॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थ भण्णमाणे पुव्वं व दोहि पयारेहि अत्थो वत्तव्यो । प्ररूपणा इस प्रकारसे करनी चाहिये। यथा-जो अनन्तानन्त ज्ञानावरणीय कर्म रूप स्कन्ध निरन्तर परस्परमें संबद्ध होकर स्थित हैं वे अनन्तरबन्ध हैं। इससे सम्बन्ध रहित एक आदि परमाणुओंको ज्ञनावरणीयत्वका प्रतिषेध किया गया समझना चाहिये। अनन्तरबन्ध स्कन्धोंको ही ज्ञानावरणीयत्व प्राप्त होनेपर परम्पराबन्ध भी ज्ञानावरणीयवेदना होती है, यह जतलानेके लिये द्वितीय सूत्र की प्ररूपणा की गई है। जो अनन्तानन्त कर्म पुद्गलस्कन्ध परस्परमें सम्बद्ध होकर शेष कर्मस्कन्धोंसे असम्बद्ध होते हुए जीवके द्वारा इतर स्कन्धोंसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं वे परम्पराबन्ध कहे जाते हैं। ये भी ज्ञानावरणीयवेदना स्वरूप होते हैं, यह उसका अभिप्राय है। इससे एक जीवके आश्रित सब ज्ञानावरणीय कर्म रूप पुद्गलस्कन्ध परस्पर समवत होकर ज्ञानावरणीयवेदना स्वरूप होते हैं, इस एकान्तका निराकरण किया गया समझना चाहिये। शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार शेष सात कर्मों के विषय में जानना चाहिये ॥५॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके परम्पराबन्ध, अनन्तरबन्ध और तदुभयबन्धकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मों के उन बन्धोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना अनन्तरबन्ध है ॥ ६ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय पहिलके ही समान दो प्रकारसे अर्थका कथन करना चाहिये। १ ताप्रती 'ति । एदेसि' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्रा-का-ताप्रतिषु 'अस्थि' इति पाठः। ३ अ-श्रा-ताप्रतिषु 'संबंधं" काप्रतौ 'संबंधा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy