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________________ ४३० ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, १३, १५५. कुदो? जहण्णकाल मेगसमयमेत्तं पेक्खिदूण जहण्णखेत्ता उअट्ठिदीए अंतो मुहुत्तमेत्ताए असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५५ ॥ सुगमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा छट्ठाणपदिदा ॥ १५६ ॥ विहासा - जदि आउअं मज्झिमपरिणामेण बंधिय जहण्णक्खेत्तं करेदि तो खेत्तेण सह भावो वि अहण्णो' । अण्णहा पुण अजहण्णा, होता वि छट्ठाणपदिदा भावम्मि छपियारेहि वड्डिसणादो । जस्स आउअवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५७ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणन्भहिया ॥ १५८ ॥ कुदो ? जहण्णदव्वेण गतमयपबद्धं अंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ कारण कि एक समय प्रमाण जघन्य कालकी अपेक्षा जघन्य क्षेत्रस्थित आयु कर्मकी अन्तमुहूर्त मात्र स्थिति असंख्यातगुणी पायी जाती है । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। १५५ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह जघन्य भी होती हैं और अजघन्य भी । जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानों में पतित है ॥ १५६ ॥ उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- यदि आयुको मध्यम परिणाम से • बाँधकर जघन्य क्षेत्र करता है तो क्षेत्र के साथ भाव भी जघन्य होता है । परन्तु इससे विपरीत अवस्था में भाव वेदना अजघन्य होती है । अजघन्य होकर भी वह छह स्थानों में पतित होती है, क्योंकि, भावमें छह प्रकारों से वृद्धि देखी जाती है। जिस जीवके आयुकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। १५७ ।। यह सूत्र सुगम है । वह उसके नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। १५८ ॥ कारण कि एक समयप्रबद्धको अंगुलके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें से एक १ प्रतिषु 'जहण्णा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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