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४, २, ७, ६७ ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं
[४५ जहण्ण-उक्कस्स-जहण्णुक्कस्सभेदेण तिवियप्पे अप्पाबहुए परूविदूण समत्ते किम चउसद्विपदियमहादंडओ वुच्चदे ? ण एस दोसो, पुव्विल्लमूलपयडिअप्पाबहुगं जेण देसामासियं तेण तमज वि ण समत्तं । तदो तेणामासिदउत्तरपयडिउक्कस्स-जहण्णाणुभागअप्पाबहुगं मणिदूण तं समाणणट्ठ'मिदं वुच्चदे ।
सव्वतिव्वाणभागं सादावेदणीयं ॥ ६६ ॥
अइसुहपयडित्तादो सुहुमसांपराइयचरिमसमयतिव्वविसोहीए पवद्धत्तादो संसारसुहहेदुत्तादो वा।
जसगित्ती उच्चागोदं च दो वि तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि ॥६७॥
सादावेदणीयादो एदाणि दो वि कम्माणि सुहत्तणेण सुहुमसांपराइयचरिमसमए बंधभावेण च सरिसाणि होदूण कधं तत्तो अणंतगुणहीणाणि[ण,] जसगित्ति-उच्चागोदेहितो अइसुहसरूवत्तादो। ण च सुहाणं कम्माणं सव्वेसिं समाणत्तं वोत्तु सकिजदे, तरतमभावेण अण्णत्थ सुहत्तवलंभादो। जसकित्ति-उच्चागोदाणि सुहाणि त्ति कादण तकारण
शंका--जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारके अल्पबहुत्वका कथन करके उसके समाप्त हो जानेपर फिर चौंसठ पदवाले महादण्डकको किस लिये कहा जाता है ? ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पहिलेका मूल प्रकृति अल्पबहुत्व चूँकि देशामर्शक है अतः वह आज भी समाप्त नहीं हुआ है। इस कारण उसके द्वारा आमर्शित उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग सम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहकर उसे समाप्त करनेके लिये उक्त महादण्ड कहा जा रहा है।
सातावेदनीय प्रकृति सर्व तीव्र अनुभागसे संयुक्त है ॥ ६६ ॥
क्योंकि, वह अतिशय शुभ प्रकृति है, अथवा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें तीव्र विशुद्धिसे उसका बन्ध हुआ है अथवा वह संसार सुखका कारण है।
इससे यश कीर्ति और उच्चगोत्र ये दोनों ही परस्पर तुल्य होकर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ६७॥
__ शंका--ये दोनों ही कर्म शुभ होनेके कारण तथा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें बँधनेके कारण सातावेदनीयके समान हैं। ऐसी अवस्थामें उससे अनन्तगुणे हीन कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-[ नहीं ], क्योंकि, यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी अपेक्षा सातावेदनीय अतिशय शुभ है। सब शुभकर्म समान ही हों, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, अन्यत्र तरतम भावसे शुभपना उपलब्ध होता है। यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके शुभ होनेसे उनके कारणभूत कर्म भी शुभ
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१ प्रतिषु-णहमिदि वुच्चदे इति पाठः।
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