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________________ ४, २, ७, १२० j वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [६५ एत्तो जहण्णओ चउसहिपदिओ महादंडओ कायव्वो भवदि ॥ ११८॥ पुव्विल्लप्पाबहुएण जहण्णेण सूचिदचउसद्विपदियमप्पाबद्दगं भणिस्सामो। सव्वमंदाणभागं लोभसंजलणं ॥ ११ ॥ अणियट्टिचरिमसमयबंधग्गहणादो। सुहमसांपराइयचरिमसमयलोभो सुहुमकिट्टिसरूवो किण्ण घेप्पदे १ ण, बंधाधियारे संतग्गहणाणुववत्तीदो। ण वेयणाए संतं चेव परूविजदे, बंध-संताणं दोण्णं पि परूवयत्तादो ।(एदाणि चउसहिपदियाणि जहण्णुक्कस्सप्पाबहुगाणि बंधं चेव अस्सिदूण अवट्टिदाणि । तं कधं णबदे ?(महाबंधसुत्तुवइत्तादो। मायासंजलणमणंतगुणं ॥ १२० ॥ अणियट्टिचरिमसमयादो हेटा अंतोमुहुत्तमोदरियट्टिदमायाकसायचरिमाणुभागबंधग्गहणादो । कुदो एदं णबदे ? अणियट्टिचरिमाणुभागबंधादो दुचरिमाणुभागबंधो अणंतगणो। तत्तो तिचरिमाणुभागबंधो अणंतगुणो । एवं सव्वत्थ अणियट्टिकालभंतरे आगे चौंसठ पदवाला जघन्य महादण्डक करने योग्य है ॥ ११८ ॥ पूर्वोक्त जघन्य अल्पबहुत्वसे सूचित चौंसठ पदवाले अल्पबहुत्वको कहते हैं। संज्वलनलोभ सबसे मन्द अनुभागसे युक्त है ॥ १६ ॥ क्यांकि अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी बन्धका यहाँ ग्रहण किया गया है। शंका-सूक्ष्मसाम्पराविकके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म कृष्टि स्वरूप लोभका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, बन्धके अधिकारमें सत्त्वका ग्रहण करना नहीं बन सकता है । वेदनामें केवल सत्त्वका ही कथन नहीं किया जा रहा है, क्योंकि, वह बन्ध और सस्व दोनोंका ही प्ररूपक है। ये चौंसठ पदवाले जघन्य व उत्कृष्ट अल्पबहुत्व बन्धका आश्रय करके ही अवस्थित हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह महाबन्ध सूत्रके उपदेशसे जाना जाता है । उससे माया संज्वलन अनन्तगुणा है ॥ १२० ॥ क्योंकि अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयसे नीचे अन्तमुहूर्त उतर कर स्थित माया कषायके अनुभागबन्धका यहाँ ग्रहण किया है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी अनुभागबन्धकी अपेक्षा उसका द्विचरम समय सम्बन्धी अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे त्रिचरम समय सम्बन्धी अनुभाग छ. १२-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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