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________________ ६४ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२,७,६, गा० पयला घेत्तव्वा, णामेगदेसादो वि णामिल्लपडिवत्तिदंसणादो। 'णि'इदि वुत्ते । ए गहणं । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । 'अट्ट'इदि वुत्ते अट्ठकसाया घेत्तव्वा । 'तिय' त्ति भणिदे थीणगिद्धितियं घेत्तव्यं । कुदो? आइरियोवदेसादो । 'अण'इदि णिद्देसो अणंताणुबंधिचउकगहणणिमित्तो । 'मिच्छा'णिद्देसो मिच्छत्तस्स गाहओ। 'ओ'इदि वुत्ते ओरालियसरीरं घेत्तव्यं । ओहिणाणं किण्ण घेप्पदे ? ण, तस्स पुव्वं परूविदत्तादो। 'वे' इदि भणिदे वेउव्वियसरीरस्स गहणं ण अण्णस्स, असंभवादो। "तिरिक्ख-मणुसाऊ' इदि भणिदे दोण्णमाउआणं गहणं, आउअसहस्स पादेकमभिसंबंधादो। 'तेया-कम्मइयसरीरं'इदि वुत्ते तेजइय-कम्मइयसरीराणं गहणं । 'तिरिक्ख-णिरय-मणुव-देवगदित्ति भणिदे चत्तारिगदीओ घेत्तव्वाओ, गइसदस्स पादेकमभिसंबंधादो। (णीचागोदं अजसो असादमुच्चं जसो तहा सादं । णिरयाऊ देवाऊ आहारसरीरणामं च ॥६॥) एसा गाहा सुगमा। उन दोनोंका निर्देश किया गया है । 'प' ऐसा कहनेपर प्रचलाका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, नामके एकदेशसे भी नामवालेका बोध होता हुआ देखा जाता है । 'नि' इस निर्देशसे निद्राका ग्रहण करना चाहिये । कारण पहिलेके समान कहना चाहिये । 'अट्ट' ऐसा कहनेपर प्रत्याख्यानावरणचतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क इन आठ कषायोंका ग्रहण करना चाहिये । 'तिय' कहनेपर स्त्यानगृद्धित्रयका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा आचार्योंका उपदेश है। 'अण' यह निर्देश अनन्तानुबन्धिचतुष्कका ग्रहण करनेके निमित्त है। 'मिच्छा' शब्दका निर्देश मिथ्यात्वका ग्राहक है। 'ओ' कहनेपर औदारिक शरीरका ग्रहण करना चाहिये। शंका-'ओ' कहनेपर अवधिज्ञानावरणका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उसका पहिले कथन कर आये हैं। 'वे' ऐसा कहनेपर वैक्रियिक शरीरका ग्रहण करना चाहिये, अन्यका नहीं; क्योंकि उससे अन्यका ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है। 'तिरिक्ख-मणुसाऊ' ऐसा कहनेपर तिर्यगायु और मनष्याय इन दो आयओंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, आयु शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध है। 'तेया-कम्मसरीरं' ऐसा कहनेपर तैजस और कार्मण शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'तिरिक्ख णिरय-मणुव-देवगई' ऐसा कहनेपर चारों गतियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, गति शब्दका सम्बन्ध प्रत्येकके साथ है। नीचगोत्र, अयश कीर्ति, असातावेदनीय, उच्चगोत्र, यश-कीर्ति, तथा सातावेदनीय, नारकायु, देवायु और आहारशरीर, ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हैं ॥ ६ ॥ यह गाथा सुगम है। १ अप्रतौ 'तिरिक्खुवणुसाऊ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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