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________________ ४, २, ७, ५१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [ ३७ _____णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयवेयणा भावदो उक्कस्सियाओ तिण्णि वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ ॥ ४६ ॥ केवलणाण-दंसणाणं समाणत्तणेण तदावरणाणुभागस्स वि होदु णाम समाणत्तं, किं तु अंतराइयाणुभागस्स ण समाणत्तं जुञ्जदे केवलणाण-दंसण-अणंतवीरियाणं समाणत्ताभावादो त्ति १ ण एस दोसो, केवलणाण-दसण-अणंतवीरियाणं समाणत्तब्भुवगमादो । कुदो समाणत्तं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च आवारयसत्तीए समाणाए संतीए तदावरणिजाणं विसरिसत्तं जुञ्जदे, विरोहादो। कधं पुण आउअउक्कस्साणुभागादो अणंतगुणत्तं ? ण, अंतरंग-बहिरंगपडिबद्धाणंतकजवलंभादो। मोहणीयवेयणा भावदो उकस्सिया अणंतगुणा ॥ ५० ॥ कुदो ? साभावियादो । ण च सहावो जुत्तिगोयरो, अग्गी दहणो वि संमारणमिचादिसु जुत्तीए अणुवलंभादो । णामा-गोदवेयणाओ भावदो उक्कसियाओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ ॥ ५१ ॥ भावकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट वेदनायें तीनों ही तुल्य होकर आयुकर्मकी उत्कृष्ट वेदनासे अनन्तगुणी हैं ॥ ४९ ॥ __ शंका--यतः केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों ही समान हैं अतः केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके अनुभागमें भी समानता रही आवे किन्तु अन्तरायके अनुभागको इनके समान मानना उचित नहीं हैं, क्योंकि, केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यमें समानता नहीं है। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यमें समानता स्वीकार की गई है। शंका-उन तीनोंमें समानता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह इसी सूत्रसे जाना जाता है। और आवारकशक्तिके समान होनेपर उनके द्वारा आवरण करने योग्य गुणोंमें असमानता मानना उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा मानने में विरोध आता है। . शंका-तो फिर आयुके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा उनका अनुभाग अनन्तगुणा है यह कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तरंग व बहिरंग कारणोंसे प्रतिबद्ध उनके अनन्त कार्य उपलब्ध होते हैं, इससे ज्ञात होता है कि आयुके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा उनका अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे भावकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट वेदना अनन्तगुणी है ॥ ५० ॥ कारण कि ऐसा स्वभाव है और स्वभाव युक्तिका विषय नहीं होता, क्योंकि, अग्नि दाहजनक होकर भी मृत्युदायक है इत्यादिमें कोई युक्ति नहीं पाई जाती। उनसे भावकी अपेक्षा नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट वेदनायें दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणी हैं ॥५१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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