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________________ ४००] • छक्मंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ५५. तामावादो । ण च अप्पमाणेण पमाणं वाहिज्जदे,विरोहादो। कासा पुण एत्थ हिरवज्ज-' सुत्ताणुकूला तंतजुत्ती ? वुच्चदे-वेयणीय उक्कस्साणुभागबंधस्स द्विदी बारसमुहुत्तमेत्ता। तत्थ सादावेदणीयचिराणहिदीए पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्ताए द्विदकम्मपोग्गला उक्कड्डिजति अणुभागेण । कुदो ? 'बंधे उक्कडदि' ति वयणादो । होदु णाम अणुभागस्स उक्कड्डणा, ण द्विदीए । कुदो १ पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्तहिदिदीहत्तणं णस्सिदण बारसमुहुत्तहिदिसरूवेण परिणदत्तादो ति । होदु णाम कैसि पि परमाणूणं द्विदीए ओकड्डणा', अण्णहा तत्थ गुणसेडीए अणुववत्तीदो। किंतु ण सव्वेसि कम्मपरमाणणं ठिदीणं ओकड्डणा, केसि पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तहिदीए अधहिदिगलिदसेसियाए अवठ्ठाणुवलंमादो। ण च अणुभागुक्कड्डणा वि सव्वेसिं कम्मपरमाणूणं होदि, थोवाणं चेव बज्झमाणाणुभागसरूवेण परिणामदंसणादो। तदो पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्तहिदीए द्विदकम्मक्खंधा उक्कस्साणुभागसरूवेण उक्कडिदा बारसमुहुत्ते मोत्तण पुवकोडिकालेण वि ण गलंति त्ति सिद्धं । तेण कारणेण लोगमावूरिदकेवलिम्हि वेयणीयमावो उक्कस्मो चेव, णाणुक्कस्सो। क्योंकि, जो युक्ति सत्रके विरुद्ध हो वह वास्तवमें युक्ति ही सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त अप्रमाणके द्वारा प्रमाणको बाधा भी नहीं पहुँचायी जा सकती है, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। शंका-तो फिर यहाँ सूत्रके अनुकूल वह निर्दोष तंत्रयुक्ति कौनसी है ? समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी स्थिति बारह मुहूर्त मात्र है । उसमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सातावेदनीयकी चिरकालीन स्थितिमें स्थित कर्मपुद्गल अनुभाग स्वरूपसे उत्कर्ष को प्राप्त होते हैं, क्योंकि, 'बन्धमें उत्कर्षण होता' है। ऐसा सत्रवचन है। . शंका-अनुभागका उत्कर्षण भले ही हो, किन्तु स्थितिका उत्कर्षण सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिकी दीर्घता नष्ट हो करके बारह मुहूर्त प्रमाण स्थितिके स्वरूपसे परिणत हो जाती है ? __ समाधान-किन्हीं परमाणुओंकी स्थितिका अपकर्षण भले ही हो, क्योंकि, इसके विना उसमें गुणश्रेणिनिर्जरा नहीं बन सकती। किन्तु सभी कर्मपरमाणुओंकी स्थितियोंका अपकर्षण सम्भव नहीं है, क्योंकि, किन्हीं कर्मपरमाणुओंकी अधःस्थितिके गलनेसे शेष रही पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिका अवस्थान पाया जाता है । इसके अतिरिक्त अनुभागका उत्कर्षण भी सभी परमाणुओंका नहीं होता, क्योंकि, थोड़े ही कर्मपरमाणुओंका बाँधे जानेवाले अनुभागके स्वरूपसे परिणमन देखा जाता है। इस कारण पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिमें स्थित कर्मस्कन्ध उत्कृष्ट अनुभाग स्वरूपसे उत्कर्षणको प्राप्त होकर बारह मुहुर्तीको छोड़कर पूर्वकोटि प्रमाण कालमें भी नहीं गलते हैं, यह सिद्ध है। इसीलिये लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त केवलीमें वेदनीयका भाव उत्कृष्ट ही होता है, अनुत्कृष्ट नहीं होता। .. . अ-श्रा- काप्रतिषु 'णिखज-' इति पाठः । २ तापतौ 'उकड्डणा ए (ण) द्विदीए इति पाठः । ३ प्रतिषु 'श्रोकडुणाए' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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