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________________ १५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, २११. तरेहिंतो अणंतगुणं। चत्तारिअंकट्ठाणंतरेहिंतो असंखेज्जगुणं । पंचंकट्ठाणंतरेहिंतो असंखेज्जगुणं । उवरिमअहंक-हेहिमउव्वंकहाणंतरेहितो अणंतगुणं । पढमकहाणम्हि उवरिमपढमसत्तंकादो हेडिमचत्तारिअंकहाणंतरेहिंतो असंखेज्जगुणं । विदियसंखेजगुणवड्डीए हेट्टिमसंखज्जमागवड्डिहाणंतरेहिंतो संखेज्जगुणं संखेज्जभागहीणं संखेज्जगुणहीणं असंखेज्जगुणहीणं वा । इमं चेव संखेज्जगुणवड्ढेि उक्कस्ससंखेज्जमेत्तउव्वकं संखेज्जगुणवड्डिअभंतरफद्दयसलागाहि ओवट्टिय रूवे अवणिदे फद्दयंतरं होदि । एदं हेहिमअणंतभागवड्ढिपक्खेवफद्दयंतरेहितो अणंतगुणं । चत्तारिअंकफद्दयंतरेहितो असंखेज्जगुणं। पंचंकपक्खेवफद्दयंतरेहितो असंखेज्जगुणं । एवमुवरिमफद्दयंतरेहि वि सह जाणिदण सण्णियासो काययो । एवमसंखज्जलोगमेत्तछटाणभंतरे हिदसंखेज्जगुणवड्डीणं परूवणा कायव्वा । एत्थ गंथबहुत्तभएण जपण लिहिदं तमेदेण उवदेसेण भणिय गेण्हियव्वं । असंखेजगुणपरिवड्डी काए परिवड्डीए ॥२१॥ सुगमं । असंखेज़लोगगुणपरिवड्डी, एवदिया परिवड्डी ॥२१२॥ कंदयमेत्तछअंकेसु गदेसु समयाविरोहेण वड्डिदउवरिमछअंकविसयम्मि विदचरिमउव्वंके असंखज्जेहि लोगेहि गुणिदे असंखज्जगुणवड्डी उप्पज्जदि । उव्वंकं पडिरासिय स्थानान्तर अधस्तन ऊर्वक स्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा, चतुरंक स्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, पंचांक स्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, उपरिम अष्टांक और अधस्तन ऊर्वकस्थानान्तरीसे अनन्तगुणा, प्रथम षस्थानमें उपरिम सप्तांकसे व अधस्तन चतुरंकस्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा तथा द्वितीय संख्यातगुणवृद्धिसे अधस्तन संख्यातभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे संख्यातगुणा, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणाहीन अथवा असंख्यातगुणा हीन है। इसी संख्यातगुणवृद्धिको उत्कृष्ट संख्यात मात्र ऊवकको संख्यातगुणवृद्धिके भीतर स्पर्द्धकशलाकाओंसे अपवर्तित कर एक अंकके कम करनेपर स्पर्धकान्तर होता है। यह अधस्तन अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपस्पर्द्धकान्तरोंसे अनन्तगुणा, चतुरंकरपद्धकान्तरोंसे असंख्यातगुणा और पंचांकप्रक्षेपस्पर्धकान्तरोंसे असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार उपरिम स्पर्धकान्तरोंके भी साथ जानकर तुलना करनी चाहिये। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंके भीतर स्थित संख्यातगुणवृद्धियोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। यहाँ ग्रन्थविस्तारके भयसे जो नहीं लिखा गया है उसे इस उपदेशसे कहकर ग्रहण करना चाहिये। असंख्यातगुणवृद्धि किस वृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत है ? ॥ २११ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह असंख्यात लोकोंसे वृद्धिंगत है । इतनी वृद्धि होती है ।। २१२ ॥ काण्डक प्रमाण छह अंकोंके बीतनेपर यथाविधि वृद्धिको प्राप्त उपरिम षडंकके विषयमें स्थित अन्तिम ऊर्वकको असंख्यात लोकोंसे गुणित करनेपर असंख्यातगुणवृद्धि उत्पन्न होता है । ऊर्वकको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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