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________________ २६६ ] डागमे वेयणाखंखं वादो । संपहि जवमज्भुप्पण्णपदेसपरूवणङ्कं जवमज्झपरूवणा कीरदे— जवमज्झपरूवणाए द्वाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमज्झं ॥ २६० ॥ [ ४, २, ७, २९०. वाणि असंखेज्जखंडाणि काढूण तत्थ एगखंडे जवमज्यं होदि । एदं जव मज्झट्ठिमचदुसमइयडाणप्पहुडि उवरि विसमयपाओग्गड णाणमसंखेज्जदिभागं गंतूण होदि । 'तिसमयपाओग्गडाणं चरिमसमयम्मि जवमज्भं किण्ण जायदे ? [ण, ] असंखेज्जलोग मेत्तगुणहाणिप्पसंगादो । एदं कुदो णव्वदे ! हेडिमट्ठाणेहिंतो असंखेज्जगुणतिसमयपाओग्गट्टाणे असंखेज्जलोगेहि गुणिदेसु विसमयपाओग्गड्डाणाणं पमाणुप्पत्ती दो । तं पि कुदो णव्वदे ९ पुव्वं परु विदअप्पाच हुगसुत्तादो । तं जहा - सव्वत्थोवा अहसमयपाओग्गअणुभागबंधकवसाणट्ठाणाणि । दोसु वि पासेसु सत्तसमयपाओग्गअणुभागबंधज्वसाणडाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु छसमयपाओग्गहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु पंचसमइयपाओग्गद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु चदुसमयपाओग्गट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि । *तिसमय पाओग्गद्वाणाणि असंखेगुणाणि । विसमयपाओग्गट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । गुणागारो सव्वत्थ असंखेज्ज अब यवमध्य में उत्पन्न प्रदेशकी प्ररूपणा करनेके लिये यवमध्यकी प्ररूपणा करते हैं - यवमध्य की प्ररूपणा करनेपर स्थानोंके असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है ।। २६० ॥ सब स्थानों के असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड में यवमध्य होता है । यह यवमध्य के अधरतन चार समय योग्य स्थानों से लेकर ऊपर दो समय योग्य स्थानोंके असंख्यातवें भाग जाकर होता है । शंका- तीन समय योग्य स्थानोंके अन्तिम समय में यवमध्य क्यों नहीं होता है ? समाधान - [ नहीं, ] क्योंकि वैसा होनेपर असंख्यात लोक प्रमाण गुणहानियोंका प्रसंग आता है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अधस्तन स्थानांकी अपेक्षा असंख्यातगुणे तीन समय योग्य स्थानोंको असंख्यात लोकों से गुणित करनेपर चूँकि दो समय योग्य स्थानोंका प्रमाण उत्पन्न होता है, अतः इसीसे उक्त प्रसंग सुविदित है । शंका- वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - वह पूर्व में प्ररूपित अल्पबहुत्व सम्बन्धी सूत्रसे जाना जाता है। यथा-आठ समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे दोनों ही पार्श्व भागों में सात - समय योग्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे दोनों ही पार्श्वभागों में छह समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे दोनों ही पार्श्वभागों में पाँच सयय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं | उनसे दोनों ही पार्श्वभागों में चार समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे तीन समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे दो समय योग्य स्थान असंख्यातगुणे हैं । १ ताप्रती 'ति (वि समय-' इति पाठः । २ अ-ताप्रत्योः 'समय' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'समय' हृति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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