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________________ [२६७ ४, २, ७, २९३] वेयणमहाहियारे वेयणभावषिहाणे तदिया चूलिया लोगमेत्तो होदि ति सुत्तम्मि ण परू विदो। एदं सुत्तं वक्खाणेता के वि आइरिया गुणगारो कायहिदि ति भणंति, के वि सामण्णेण असंखेज्जा लोगा त्ति । तं जाणिय वत्तव्यं । जवमझस्स हेडिमट्ठाणाणि किं बहुगाणि आहो उवरिमाणि, उभयथा वि हाणाणमसंखेज्जदिमागे जवमज्झमि दि सिद्धीदो त्ति भणिदे तण्णिण्णयमुत्तरसुत्तं भणदि जवमज्झस्स हेट्टदो हाणाणि थोवाणि ॥ २६१ ॥ - सुगम। , उवरिमसंखेजुगुणाणि ॥ २६२॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कारणं पुष्वं 'परूविदमिदि णेह परूविज्जदे। फोसणपरूवणदाए तीदे काले एयजीवस्स उकस्सए अणुभागबं. धज्झवसाणहाणे फोसणकालो थोवो ॥ २६३ ॥ एत्थ संत-पमाणपरूवणाहि विणा अप्पाबहुगपरूवणा चेव किमटुं बुच्चदे ? ण ताव संतपरूवणा एत्थ कायव्वा, अप्पाबहुगेण चेवावगमादो। कुदो ? अविज्जमाणसंतस्स गणकार सब स्थानोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है, यह सूत्र में नहीं कहा गया है। इस सूत्रका व्याख्यान करनेवाले कितने ही आचार्य गुणकार कायस्थिति प्रमाण बतलाते हैं और कितने ही समान्य रूपसे उसका प्रमाण असंख्यात लोक बतलाते हैं। उसका जान करके कथन करना चाहिये। यवमध्यसे नीचेके स्थान क्या बहुत हैं अथवा ऊपरके, क्योंकि, दोनों प्रकारके ही स्थानोंके असंख्यातवें भागमें यवमध्य है, ऐसा सिद्ध है, इस प्रकार पूछे जानेपर उसका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- यवमध्यके नीचे के स्थान स्तोक हैं ॥ २६१ । यह सूत्र सुगम है। उनसे ऊपरके स्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २९२ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ? कारण की प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है, अतएव उसकी यहाँ प्ररूपणा नहीं की जाती है। . स्पर्शनप्ररूपणाकी अपेक्षा अतीत कालमें एक जीवके उत्कृष्ट अनुभागवन्ध्राध्यवसानस्थानमें स्पर्शनका काल स्तोक है ॥ २६३ ॥ शंका-यहाँ सत्प्ररूपणा व प्रमाणप्ररूपणाके बिना अल्पबहुत्वप्ररूपणा ही किसलिये की जा रही है ? समाधान-यहाँ सत्प्ररूपणा करना योग्य नहीं है, क्योंकि, उसका ज्ञान अल्पबहुत्वसे ही १ अ-आप्रत्योः 'पुग्धं व परूविद-', तापतौ 'पुवं [वि] परूविद-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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